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काव्य शिल्प
१- जैनमेघदूतम् की भाषा- आचार्य मेरूतुङ्ग का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। वह भाषा को जिस प्रकार से चाहते हैं उस प्रकार से नचा सकते है। इनकी भाषा सबल पुष्ट और सुसंगठित है। इसमे उच्चकोटि की कल्पनाओं के साथ ही भाव गाम्भीर्य भी है। कल्पना की ऊँची उड़ान से भाषा चमत्कृत हो गई है। भाषा और शब्दकोश पर असाधरण अधिकार होने के कारण उनकी भाषा में असाधरण मनोरमता प्रौढ़ता, प्रांजलता और परिष्कार है। कवि ने भावों के अनुकूल भाषा का प्रयोग किया है। काव्य में मुख्यतः गौड़ी और वेदी रीतियाँ ही विद्यमान है। माधुर्य गुण से अभिव्यञ्जना कर कवि ने भाषा को माधुर्य गुण से परिपूर्ण कर दिया है। ओज गुण की रमणीय छटा का दर्शन श्री नेमिनाथ द्वारा शंख बजाने और श्री कृष्ण के साथ भुजबल की परीक्षा के समय होता है। प्रसाद गुण का भी दर्शन किञ्चित स्थलो पर हो जाता है।
कवि की भाषा में रस का अजस्र प्रवाह दृष्टिगत होता है। कवि ने भावों के अनुकूल रसों का प्रयोग किया है। कवि ने शृङ्गार के दोनों पक्षों संयोग एवं विप्रलम्भ तथा वीर, शान्त रसों का भी प्रयोग किया है।
भाषा में ध्वनि का चमत्कार भी देखने योग्य है। काव्य का प्रारम्भिक श्लोक ध्वनि से पूरित मिलता है -
कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्छुरत्यन्त धीमानेनोवृत्तिं त्रिभुवनगुरू: स्वैरमुज्झाञ्चकार। दानं दत्वासुरतरुरिवात्युच्च धामरुरुक्षुः