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(६) वैवर्ण्य
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वर्णविकार का नाम वैवर्ण्य है।
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विषाद, मद, रोष आदि के कारण उत्पन्न हुए
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(७) अश्रु - दुःख, प्रहर्ष आदि के कारण उत्पन्न होने वाले नेत्र जल को अश्रु कहते हैं।
(८) प्रलय
सुख अथवा दुःख के अतिरेक मे चेष्टाशून्यता किं वा ज्ञानशून्यता प्रलय है।'
इस प्रकार अन्ततः हम कह सकते हैं कि रत्यादि भाव जो मनुष्य के अन्दर निहित है वह जब बाह्य जगत में वाणी या अङ्गों के अभिनय द्वारा प्रकट करते है तो उसे हम अनुभाव की संज्ञा दे सकते हैं। उद्दीपन और आलम्बन विभाव से रत्यादि भाव हृदय मे उद्बुद्ध हुआ करता है। परन्तु वही रत्यादि भाव जब आङ्गिक चेष्टाओं द्वारा लोक जीवन मे काव्य-नाटक में प्रकाशित होता है तो उसे हम अनुभाव का स्वरूप प्रदान करते है । इनकी स्थिति स्वभाविक मानी जाती है। अनुभाव में शारीरिक व्यापार जैसे कटाक्ष आदि की प्रमुखता मानी जाती है। अनुभाव रसानुभूति कराने मे साधन के रूप में होते है।
व्यभिचारीभाव - आचार्य विश्वनाथ व्यभिचारीभाव का स्वरूप प्रस्तुत करते हुए कहते है
विशेषादाभिमुख्येन चरणाद्व्यभिचारिणः ।
स्थायिन्युन्मग्ननिर्मग्नस्त्रयस्त्रिंशच्च तद्भिदाः । । '
अर्थात् वे भाव व्यभिचारी भाव कहे जाते है जो (विभाव और अनुभाव की अपेक्षा) विशेष उत्कटता किं वा अनुकूलता से (वासनारूप से सामाजिक
साहित्यदर्पण ३ / १३५ से १३९ तक।
साहित्यदर्पण ३ / १४०