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हुआ।' बीभत्स के दो प्रकार होते हैं। परिस्थितियो के आधार पर इसका निधरिण होता है। (१) रूधिरादिक क्षोमकारक वातावरण में अनुभूत होता है (२) विष्ठादिक उद्वेगकारक वातावरण मे बोधगम्य होता है। कुछ विद्वान वाक्, काय तथा मन के आधार पर इसके तीन प्रकार मानते हैं। वैसे बीभत्स का मानस रूप ही उसकी स्वाभाविक दशा को व्यक्त करता है। आङ्गिक तो कृत्रिम माना जाता है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'बीभत्स' वह रस है जिसे 'जुगुप्सा' के स्थायीभाव का अभिव्यञ्जन माना जाया करता है। इसका वर्ण नील है। इसके देवता महाकाल हैं। इसके आलम्बन दुर्गन्धमय मांस रक्त, भेद आदि है। इन्ही दुर्गन्धमय मास के कीड़े पड़ने आदि को इसका उद्दीपन विभाव माना जाता हैं। निष्ठीवन, आस्यवलन, नेत्र संकोच आदि इनके अनुभाव है। मोह, अपस्मार, आवेग, व्याधि तथा मरण आदि इसके व्यभिचारी भाव है।
(८) भयानक रस - भयानक रस का परिचयात्मक वर्णन करते हुए शारदातनय ने बीभत्स के कर्म को ही भयानक बताया है। इस सन्दर्भ में भयानक को बीभत्स का आश्रित रस बताया गया हैं। इस रस का परिचय देते हुए शारदातनय ने कहा है कि जब विकृत नामक विभाव अपने उपयोगी अन्य भावों के सहयोग से स्थायीभाव में विद्यमान रहता हुआ सामाजिकों के चित्तावस्था तमोऽन्वयी सत्त्वान्वित मन को आस्वाद्य स्थिति में उपस्थित करता है तब आस्वाद्य-भाव को भयानक रस माना जाता है।
बधेर्धातोस्सनन्तस्य .. .. . बीभत्स इति संज्ञया। भा प द्वि. अधि पृ. ५९ पं. १४-१८ viiesपदर्पण ३/ २३९-२४१ जुगुप्सास्थायिभावास्तु .........मरणादया।