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(१) विप्रलम्भ (२) संभोग। विप्रलम्भ वह शृङ्गार रस है जिसमें नायक नायिका का परस्परानुराग तो प्रगाढ़ हुआ करता है किन्तु परस्पर मिलन नहीं होता। विप्रलम्भशृङ्गार ४ प्रकार का होता है (१) पूर्वराग-विप्रलम्भ (२) मान विप्रलम्भ (३) प्रवास विप्रलम्भ (४) करुण विप्रलम्भ।
(१) पूर्वराग विप्रलम्भ - पूर्व राग का अभिप्राय है रूप सौन्दर्य आदि के श्रवण अथवा दर्शन के परस्पर अनुरक्त नायक-नायिका की उस दशा को जो कि उनके समागम के पहले की दशा हुआ करती है। रूप सौन्दर्य का वर्णन तो दूत, वन्दी सखी आदि के मुख से सम्भव है औरदर्शन संभव है इन्द्रजाल मे, चित्र में, स्वप्न अथवा साक्षात। इसमें १० काम दशायें संभव है (१) अभिलाष (२) चिन्ता (३) स्मृति (४) गुणकथन (५) उद्वेग (६) संप्रलाप (७) उन्माद (८) व्याधि (९) जडता (१०) मृति (मरण) इनमें 'अभिलाष' का अभिप्राय है- परस्पर स्पृहा चिन्ता कहते है जब परस्पर प्राप्ति के उपायो का चिन्तन किया जाय। 'उन्माद' कहते हैं जब जड़ चेतन में विवेक कर पाना सम्भव न हो। 'प्रलाप' का तात्पर्य है अटपट बातचीत जो कि मन के बहक जाने में स्वाभाविक है। दीर्घ निश्वास, पाण्डुता कृशता आदि का नाम 'व्याधि' है और जिसे जड़ता कहा जाता है वह शारीरिक किं वा मानसिक निश्चेष्टता है।
विप्रलम्भ शृङ्गार में मरण का वर्णन निषिद्ध है क्यों कि इससे रस विच्छन्न हो जाता है। किन्तु यदि इसका वर्णन किया भी जाय तो केवल दो ही प्रकार से किया जा सकता है- (१) मरणासन्न दशा के रूप में और (२) मरण की हार्दिक अभिलाषा के रूप में। वैसे इस ढंग से कि मर कर भी शीघ्र पुर्नजीवन मिल जाय यहाँ मरण का वर्णन किया भी जा सकता है।
__ पूर्वराग विप्रलम्भ के सम्बन्ध में यह जानना आवश्यक है कि पूर्वराग भी इस प्रकार का हुआ करता है (१) नीलीराग जो बाहरी दिखावे में नहीं