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जीवन्धरचम्पू
न्धरचम्पूकारने उसी परिष्कृत कथाको अपने ग्रन्थका आधार बनाया है । जीवन्धर चम्पूकारने उत्तरपुराणको देखा ही न हो सो बात नहीं । उन्होंने उत्तरपुराणको देखा है और देखकर कौतुकावह स्थल अपने ग्रन्थमें लिखे हैं । उदाहरण के लिए एक स्थल पर्याप्त है—
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जीवन्धरका गुरु लोकपाल विद्याधर, अपनी पूर्व कथा जीवन्धरको सुना रहा है । वह भस्मक व्याधिके कारण जैनतपस्या से भ्रष्ट होकर अन्य साधुका रूप रख लेता है और भोजन करने के लिए जीवन्धरके साथ गन्धोत्कटकी भोजनशाला में पहुँचता है । जीवन्धर के सामने गरम भोजन आता है उसे देख वे रोने लगते हैं, साधु उनसे रोनेका कारण पूछता है और जीवन्धर कौतुकपूर्ण रीतिसे रोनेके गुण बतलाते हैं। इस घटना का वादीभसिंहकी गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि में उल्लेख नहीं है पर गुणभद्र के उत्तरपुराण में पाया जाता है । जोवन्धरचम्पूकारने भी इस घटना का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है, देखिए -
सहायैः सह संविश्य भोक्तुं प्रारब्धवानसौ । अथार्भकस्वभावेन सर्वमुष्णमिदं कथम् ॥ २७१ ॥ भुजेऽहमिति रोदित्वा जननीमकदर्थयत् । रुदन्तं तं समालोक्य भद्वैतत्ते न युज्यते ॥ २७२ ॥ अपि त्वं वयसात्सीयान् धीस्थो वीर्यादिभिर्गुणैः । अधरीकृत विश्वोऽसि हेतुना केन रोदिषि ॥ २७३ इति तापसवेषेण भाषितः स कुमारकः । शृणु पूज्य न वेत्सि त्वं रोदनेऽस्मिन्गुणानिमान् ॥ २७४॥ निर्याति संहतश्लेष्मा वैमल्यमपि नेत्रयोः । शीतीभवति चाहारः कथमेतन्निवार्यते ॥ २७५॥ इत्याख्यत्तत्समाकर्ण्य मातास्य मुदिता सती । यथाविधि सहायैस्तं सह सम्यगभोजयत् ॥२७६॥
- उत्तरपुराण पर्ब ७५
तावदर्भस्वभावेन सर्वमुष्णमिदं कथं भुञ्जऽहमिति रोदनवशेन नयनकञ्जयुगसञ्जातमकरन्दपूरकानुकारिणीभिरश्रुधाराभिर्नयन कमलवास्तव्यलक्ष्मीवक्षःस्थलस्थपुटितमालामुक्ता इव किरन्तं भवन्तं समीक्ष्य भिक्षुरयं विश्वातिशायिमतिमहिममहितस्य भृशमपरोदन निदानस्यापि तव रोदनं कथमिति चित्तभित्तीयते चित्तमित्यावभाषे ।
श्रुत्वा वाणीं तस्य मन्दस्मितेन तन्वन्निर्यत्क्षीरधारेति शङ्काम् । इत्थं वाचामाचचत्ते भवान्वै मोचामाध्वी माधुरीमादधानाम् || १४ || श्लेषच्छेदो नयनयुगलीनिर्मलत्वं च नासा
शिङ्खाणानां भुवि निपतनं कोष्णता भोज्यवर्गे । शबद्धमकर पयोदोषबाधा निवृत्ति
रन्येऽप्यस्मिन् परिचितगुणा रोदने संभवन्ति ॥ १५ ॥
- जीवन्धरचम्पू लम्ब २
आभार प्रदर्शन-
विद्वानोंके ऊपर पूज्यवर क्षुल्लक श्री १०५ गणेशप्रसादजी वर्णी महाराजका सदा वरदहस्त रहता है, एक बार मैंने उन्हें लिखा कि मैं चन्द्रप्रभ, धर्मशर्माभ्युदय तथा जीवन्धरचम्पूकी संस्कृत टीका लिख रहा हूँ। तो इसके उत्तर में उन्होंने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की थी । गुरुजनों का आशीर्वाद हर एक कार्य में प्रगति देता है ऐसा मेरा विश्वास है, अतः मुझे यह प्रकट करते हुए गौरव होता है कि जीवन्धर चम्पूकी संस्कृत तथा हिन्दी टीकाके प्रेरणादायक पूज्य वर्णोजी ही हैं। इसके प्रकाशन आदिकी व्यवस्थामें श्री श्रद्धेय नाथूरामजी प्रेमी तथा श्रद्धेय पं० श्री फूलचन्द्रजी