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जीवन्धरचम्पू
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वह गजमान्यता उनके यहाँ पीढ़ियोंसे चली आ रही थी। कायस्थोंमें जैनधर्मकी उपासनाके बहुत कम उदाहरण मिलते हैं और हरिचन्द्रका उदाहरण उनमें मुख्य है। जीवन्धर चम्पूके अन्तमें प्रशस्तिके रूपमें कुछ भी उल्लेख नहीं है।
धर्मशर्माभ्युदयका प्रकाशन निर्णयसागर प्रेस, बम्बईकी काव्यमाला सीरिजमें हुआ था। ग्रन्थके प्रारम्भमें काव्यमालाके संपादक श्री महामहोपाध्याय पण्डित दुर्गाप्रसादजीने लिखा है कि महाकवि हरिचन्द्र कायस्थवंशके शिरोमणि, दिगम्बरजैनमतानुयायी आर्द्रदेवके पुत्र हैं । इनके समयका ठीक-ठीक पता नहीं है, इतिहास में दो हरिश्चन्द्र प्रसिद्ध हैं। एक तो भट्टार हरिचन्द्र वह हैं कि जिनका उल्लेख हर्षचरितमें वाणकविने निम्न प्रकार किया है।
पदबन्धोज्ज्वलो हारी कृतवर्णक्रमस्थितिः ।
भट्टारहरिचन्द्रस्य गद्यबन्धो नृपायते ॥ और द्वितीय हरिचन्द्र, विश्वप्रकाश कोषके कर्ता महेश्वरके पूर्वपुरुष चरक संहिताके टीकाकार साहसाङ्कराजाके प्रधान वैद्य हैं। इनमेंसे प्रकृत हरिचन्द्र कोई एक है अथवा इनके सिवाय कोई तीसरा ही विद्वान् है यह संशयास्पद है। फिर भी यह कवि भी अपनी कविताकी प्रौढ़तासे माघादि प्राचीन महाकवियोंकी कक्षामें आरूढ है इसलिए अर्वाचीन नहीं है। 'संस्कृत साहित्यका संक्षिप्त इतिहास' नामक पुस्तकमें उसके लेखक श्री पं० सीताराम जयराम जोशी एम० ए० ने हरिचन्द्र कवि पर टिप्पण लिखते हुए डा. कीथके मतका भी उल्लेख किया है कि जीवन्धरचम्पूका रचयिता धर्मशर्माभ्युदयका रचयिता हरिचन्द्र ही है और उसका काल ई० ६०० के बाद बतलाया है। यह हम पहले लिख आये हैं कि हरिचन्द्रने जीवन्धरचम्पूका कथानक गुणभद्रके उत्तरपुराणसे न लेकर वादीभसिंहकी गद्यचिन्तामणिसे लिया है इसलिए इतना तो निश्चित है कि यह कवि वादीभसिंहके परवर्ती ही है। साथ ही धर्मशर्माभ्युदयके इक्कीसवें सर्गमें जो तत्त्व तथा श्रावकाचारका निरूपण हुआ है वह आचार्य सोमदेवके उपासकाध्ययन [यशस्तिलक चम्पू] के आधारपर हुआ है इसलिए उनसे भी परवर्ती है । पाटण [गुजरात के संघवी पाड़ाके पुस्तक भाण्डारमें धर्मशर्माभ्युदयकी जो हस्तलिखित पुस्तक है वह १२८७ वर्षे हरिचंद कवि विरचित धर्मशमभ्युिदयं काव्यपुस्तिका श्रीरत्नाकरसूरि आदेशेन कीर्तिचन्द्रगणिना लिखितमिति भद्रम्' इस पुष्पिका वाक्यसे १२८७ विक्रम संवत्की लिखी हुई है इतना तो सिद्ध हो जाता है कि हरिचन्द्र इसके पूर्ववर्ती ही हैं।
गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि वादीभसिंह सूरिकी अमर रचनाएँ हैं। इनमें से क्षत्रचूडामणिमें कथाका उपक्रम बतलाते हुए उन्होंने लिखा है कि सुधर्म गणधरने राजा श्रेणिकके प्रति जो कथा कही थी वही मैं कह रहा हूँ। यथा
श्रेणिकप्रश्नमुद्दिश्य सुधर्मो गणनायकः । यथोवाच मयाप्येतदुच्यते मोक्षलिप्सया ॥३॥
-क्षत्रचूडामणि, प्रथम लम्भ । जीवन्धरचम्पूमें भी यही कहा गया है
या कथा भूत बात्रीशं श्रेणिकं प्रतिवर्णिता । सुधर्मगणनाथेन तां वक्तुं प्रयतामहे ॥१०॥
-जीवन्धरचम्पू प्रथम लम्भ । इसके सिवाय कथाका सादृश्य यहाँ तककि शब्दोंका सादृश्य भी दोनोंका मिलता-जुलता है । जीवन्धरचम्पूके ११वें लम्भमें एक श्लोक आता है
काष्ठाङ्गरायते कीशो राज्यमेतत्फलायते । मद्यते वनपालोऽयं त्याज्यं राज्यमिदं मया ॥