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प्रस्तावना
नाङ्गका कितना विस्तृत और समयानुरूप वर्णन किया है यह देखते ही बनता है। तृतीय उच्छास तो राजनीतिका भण्डार ही है।
__इसके बाद महाकवि हरिचन्द्र के 'जीवन्धरचम्पू' काव्यकी रचना हुई है। इसकी कथा वादीभसिंहकी गद्यचिन्तामणि अथवा जत्रचूडामणिसे ली गई है। यद्यपि जीवन्धर स्वामीको कथाका मूल स्रोत गुगभद्रके उत्तरपुरागमें मिलता है पर उसमें और इसमें कितने स्थलोंमें नाम तथा कथानकमें वैचित्र्य पाया जाता है। इसमें प्रत्येक लम्बकी कथावस्तु तथा पात्रोंके नाम आदि गद्यचिन्तामणिसे मिलते-जुलते हैं। महाकविने इस काव्यमें भगवान महावीर स्वामीके समकालीन क्षत्रचूडामणि श्री जीवन्धर स्वामीकी कथा गुम्फित की है। पूरी कथा अलौकिक घटनाओंसे भरी है। कथाकी रोचकता देखते हुए जब कभी हृदयमें आता है कि यदि इसका चित्रपट बन जाता तो अनायास ही एक आदर्श लोगोंके सामने आ जाता ।
इस ग्रन्थकी रचनामें कविने बड़ा कौशल दिखाया है। अलंकारकी पुट और कोमल कान्त पदावली बरवश पाठकके मनको अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। मुझे तो लगता है कि कविको निसर्गसिद्ध प्रतिभा प्राप्त थी इसीलिए प्रकरणानुकूल अर्थ और अर्थानुकूल शब्दोंके ढूंढ़नेमें उसे जरा भी प्रयत्न नहीं करना पड़ा है। कितने ही गद्य तो इतने कौतुकावह है कि उन्हें पढ़कर कविकी प्रतिभाका अलौकिक चमत्कार दृष्टिगत होने लगता है। नगरी-वर्णन, राज-वर्णन, राज्ञी-वर्णन, चन्द्रोदय, सूर्योदय, वन-क्रीड़ा, जल-क्रीड़ा, युद्ध आदि काव्यके समस्त वर्णनीय विपयोंको कविने यथास्थान इतना सजाकर रक्खा है कि देखते ही बनता है। प्रस्तावना लेखके लिए समय अत्यन्त अल्प मिला है नहीं तो ग्रन्थके अवतरण देकर मैं सिद्ध करता कि कविकी कलममें कितना जादू है। अस्तु, इसके बाद जैन चम्पू ग्रन्थों में महाकवि अर्हदासके पुरुदेवचम्पूका नम्बर आता है। इसमें श्लेषादि अलंकारोंकी प्रधानता है। भगवान् आदिनाथका दिव्य चरित्र, भवान्तर वर्णनके साथ-साथ उसमें अंकित किया गया है।
इसके बाद भोजराजके 'चम्पू रामायण', अभिनव कालिदासके 'भागवत चम्पू', कवि कर्णपूरके 'आनन्द वृन्दावन चम्पू', जीव गोस्वामीके 'गोपाल चम्पू', श्रीशेप कृष्णके 'पारिजातहरणचम्पू, नीलकण्ठ दीक्षितके 'नीलकण्ठ चम्पू', वेङ्कटाध्वरीके 'विश्वगुणादर्श चम्पू', अनन्त कविके 'चम्पू भारत' केशवभट्टके 'नृसिंह चम्पू रामनाथके 'चन्द्रशेखर चम्पू' श्रीकृष्णकविके 'मन्दार मरन्द चम्पू' और पन्त विठ्ठलके 'गजेन्द्र चम्पू' आदि ग्रन्थ दृष्टिमें आते हैं जिनमें लेखकोंने अपनी गद्य पद्य लेखनकी कलो दिखलाई है। इस अल्पकाय लेखमें समग्र ग्रन्थोंका परिचय दे सकना सम्भव नहीं है इसलिए नाम मात्र देकर सन्तोष धारण किया। इस प्रकार गद्य पद्यात्मक चम्पू साहित्यका बड़ा विस्तार है। दशम ईशवीय शतीके पूर्वको चम्पू रचना मेरी दृष्टिमें नहीं आई है। काव्यमें रस
जैन सिद्धान्तके अनुसार सांसारिक आत्माओंमें प्रति समय हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और वेद ये किञ्चित् कषाय सत्ता अथवा उदयकी अपेक्षा विद्यमान रहती हैं। जव हास्य वगैरहका निमित्त मिलता है तब हास्य आदि रस प्रकट हो जाते हैं । इन्हींको दूसरी जगह स्थायिभाव कहा है। यह स्थायिभाव जव विभाव, अनुभाव और संचारी भावोंके द्वारा प्रस्फुटित होता है तब रस कहलाने लगता है । सब रस नौ हैं-१. शृङ्गार, २. हास्य, ३. करुणा, ४. रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. वीभत्स, ८. अद्भुत और ६. शान्त । कई लोग शान्तको
१, इसका सप्रमाण उल्लेख इसी प्रस्तावना लेखमें आगे देखें ।