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जीवन्धरचम्पूकाव्य
करने में समर्थ हो, उत्तम वर्षा हो, रोगोंका समूह नाशको प्राप्त हो, लक्ष्मी सरस्वतीकेसाथ प्रतिदिन परिचय करे, जिनेन्द्र देवका मत जयवन्त हो और सबकी भक्ति जिनेन्द्रदेवमें सुशोभित हो ॥५६॥ पूर्णचन्द्रकी चाँदनीके समान निर्मल-धवल तथा आनन्द उत्पन्न करनेवाली कुरुकुलपति जीवन्धर स्वामीकी कीर्ति तीनों लोकोंमें निरन्तर बढ़ती रहे और रससे सुशोभित अलंकारोंसे युक्त तथा कामदेव पदके धारक जीवन्धर स्वामीके उपाख्यानसे अलंकृत हमारी मधुर वाणी विद्वानोंके मुखोंमें नृत्य करती रहे ॥६०॥ इस प्रकार महाकवि श्री हरिचन्द्रविरचित जीवन्धरचम्पू-काव्यमें मुक्तिकी प्राप्तिका
वर्णन करनेवाला ग्यारहवाँ लम्भ समाप्त हुआ।