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________________ दशम लम्भ तत्पश्चात् खजानेके धन आदिको अपनी मुहरसे मुद्रितकर निद्रा सम्बन्धी सुखके अनुभव की इच्छा करते हुए जीवन्धर स्वामी महलके ऊपर चढ़कर मणिमय पलंगपर पड़े हंसतूलके विस्तरपर सो गये । तदनन्तर रात्रि समाप्त होनेपर वन्दीजनोंके मनोहर पद्योंके आलापसे और माङ्गलिक बाजों के विचित्र शब्दों से जागकर उन्हों ने प्रातःकाल सम्बन्धी कार्य किये और सकल परिवार समेत गोविन्द राजके साथ जिन-मन्दिर में जाकर वहाँ भगवान्की पूजा विस्तारी । तदनन्तर सबके साथ राजभवनमें जाकर विदेहके राजा गोविन्द भूपालने मन्त्रिसमूहको सामने बुलाया और शीघ्र ही राज्याभिषेककी तैयारी करनेका आदेश दिया। कुछ ही समय बाद जिनका हृदय कौतुकसे भर रहा था और जिनके नेत्र कमलके समान थे ऐसे गोविन्द महाराजने मन्त्रियों से निम्नांकित प्रश्नों की झड़ी लगा दी ॥ १२८ ॥ क्या नये-नये रत्नोंकी प्रभासे इन्द्रके सभामण्डपकी हँसी उड़ाने वाला अभिषेक मण्डप बनकर तैयार हो गया ? क्या उस मण्डपमें समस्त वर्गों के वृद्धजन इकट्ठे हो गये ? क्या सुगन्धित शीतल और स्वच्छ तीर्थ जलसे भरे हुए सुवर्णके कलश तैयार हो गये ? क्या अभिषेकके समय उपयोगमें आने वाले समस्त उपकरण उस मण्डपमें तैयार कर लिये ? क्या ज्योतिषी लोग मङ्गलमय मुहूर्तकी सावधानीसे प्रतीक्षा कर रहे हैं ? क्या नाना देशोंके राजा भेंट सजाकर तैयार कर खड़े हैं ? और क्या नगरकी गलियाँ सजा दी गई ? ये प्रश्न सुनकर मन्त्रियोंने बड़े आदरके साथ कहा कि आपकी आज्ञासे सब तैयार है ॥१२६।। उसी समय सूर्यके समान कान्ति वाला सुदर्शन यक्ष, अपने अनुगामी यक्षोंसे परिवृत हो क्षीरसागरके जलसे भरे कलश लेकर हर्षपूर्वक पिताके पदपर जीवन्धर स्वामीका राज्याभिषेक करनेके लिए आ पहुँचा । उसे देख वहाँ उपस्थित राजाओंका समूह आश्चर्यको प्राप्त हुआ ॥१३०॥ तदनन्तर अभिषेकमण्डपके मध्यमें रखे हुए रत्नमय सिंहासनके ऊपर विराजमान जीवन्धर स्वामीका, यक्षराज तथा गोविन्द महाराज आदि प्रमुख-प्रमुख राजाओंने क्षीरसागरके जलसे हर्षपूर्वक अभिषेक किया। उसी समय बजाये हुए अनेक दुन्दुभि, मृदङ्ग, शङ्ख तथा झल्लरी आदि बाजोंका शब्द, मानो मेघमण्डपको डाँटता हुआ, मानो समस्त लोगोंके कानोंको फोड़ता हुआ, मानो लोकको हिलाता हुआ, मानो अभिषेक देखनेके इच्छुक लोगोको बुलाता हुआ और मानो संसारके मध्यमें आक्रमण करता हुआ उत्पन्न हुआ। तदनन्तर दिव्य रेशमी वस्त्र और आभूषणोंसे जिनका शरीर सुशोभित हो रहा था ऐसे जीवन्धर स्वामीके मस्तकपर यक्षराजने अपने हाथमें धारण किया तथा उज्ज्वल रत्नोंसे जगमगाता हुआ मुकुट धारण किया-बाँधा ॥ १३१ ॥ तदनन्तर जीवन्धर स्वामीसे पूछकर और अपने परिवारको आदेश देकर सुदर्शन यक्ष विमानमें सवार हो अपने भवनकी ओर चला गया ॥१३२॥ उस समय समस्त राजाओंके साथ वार्तालाप करनेवाले गोविन्द महाराजको जिन्होंने आगे किया था और विनयके साथ जिनका शिर नम्रीभूत हो रहा था ऐसे पद्मास्य नामक मित्रने जिन्हें हस्तावलम्बन दिया था ऐसे जीवन्धर स्वामी सुरगजके समान सवारीके बड़े भारी हाथी पर उस तरह आरूढ हुए; जिस तरह कि सूर्य उदयाचलपर और इन्द्र ऐरावत हाथीपर आरूढ होता है । जो प्रजाजन रूपी कुमुदोंके समूहको विकसित करनेके लिए चन्द्रमण्डलके समान था, क्षीरसमुद्रके फेनके समान सफ़ेद था और स्थूल मोतियोंकी जालीसे आवृत था ऐसे छत्रसे उनका मस्तक सुशोभित हो रहा था। जो राज्यलक्ष्मीके कटाक्षोंकी परम्पराके समान जान पड़ते थे तथा क्षीरसागरको चञ्चल लहरोंकी समानता धारण करते थे ऐसे दोनों ओर ढोले जानेवाले, सुवर्ण दण्डसे सुशोभित चामरोंके द्वारा उनके वस्त्रका अञ्चल कुछ-कुछ हिल रहा था। उस समय
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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