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________________ ३१२ जीवन्धरचम्पूकाव्य शक्तिका अत्यन्त लोप हो गया, जब कलिङ्गदेशके राजाका बाण निशानाको छू भी नहीं सका, जब विनतापुरीके राजा लक्ष्यस्थलकी सिर्फ धूलि ही झाड़ सके न कि उसे नष्ट भी कर सके, जब पोदन पुरके प्रसिद्ध महाराजका उदर उन्हें लक्ष्यसे विचलित कर चुका, जब अयोध्याके राजा धैर्यसे विकल हो पृथिवीपर गिर पड़े, जब अवन्ती देशके राजा भुजाओंकी वीरता निष्फल हो जानेके कारण चुप खड़े रह गये और इसी तरह जब अन्य राजा लोग भी स्त्रियोंकी हँसीके पात्र बन चुके तब कौतुकवश काष्ठाङ्गार भी चला ॥१७-१८॥ तदनन्तर अहङ्कारके कारण जिसका आकार विषम था तथा जिसकी चाल हाथीके बच्चेके समान थी ऐसे काष्ठाङ्गारने उस यन्त्रके अधोभागमें घूमते हुए चक्रपर ज्यों ही पैर रक्खा कि वह विवश हो पृथिवीपर गिर पड़ा और राजाओं तथा स्त्रीजनोंके लिए हास्यप्रदान करनेवाला हुआ। तदनन्तर जो अपने मित्रोंके बीचमें चमकीले ताराओंसे घिरे हुए चन्द्रमाके समान सुशोभित हो रहे थे ऐसे धीर-वीर जीवन्धर कुमारपर गोविन्द महाराजने अपनी गौरवपूर्ण दृष्टि डाली और मन्द मुसकानसे जिनका मुख उज्ज्वल हो रहा था ऐसे जीवन्धर कुमार उसी समय उठ खड़े हो गये ।।१।। तत्पश्चात् जो पृथिवीपर क्रीडासहित पैर रख रहे थे, जो विजयलक्ष्मीको रोककर रखने वाली बेड़ीके कड़ेकी शङ्का उत्पन्न करनेवाले मरकतमणिनिर्मित बाजूबन्दसे सुशोभित थे और चलते समय हिलनेवाले मोतियोंकी मालासे जिनका वक्षःस्थल अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ऐसे जीवन्धर कुमारको देखकर वहाँ के लोग ऐसा समझने लगे। कितने ही लोगोंने समझा कि यह कुमार राजाओंमें शिरोमणि है, कितने ही लोग कहने लगे कि यह मनुष्यके आकारमें छिपा हुआ देव है और काष्ठाङ्गार आदि राजाओंने समझा कि यह साक्षात् मृत्यु ही है ॥२०॥ इस तरह सब लोग जिन्हें देख रहे थे ऐसे जीवन्धर कुमार उस यन्त्रके समीप जा पहुँचे । जीवन्धर कुमार क्या थे मानो विद्यारूपी समुद्रको उल्लसित करनेके लिए चन्द्रमा ही थे। वे वहाँ चन्द्रकलाका अनुकरण करनेवाली दाढ़ोंसे सुशोभित वराह यन्त्रको चिरकाल तक देखते हुए उसके छेद करने योग्य अवसरकी प्रतीक्षा करते रहे। तदनन्तर क्षणभरमें ही उछकलर उस यन्त्रके पहियेपर जा चढ़े और डोरी सहित धनुषकी टङ्कारसे पृथिवीतलको कम्पित करते हुए उन्होंने उसी क्षण उस यन्त्रको, राजाओंके गर्वको, मानियोंके खेदको और गोविन्द महाराजकी शङ्काको धनुषपर चढ़ाये हुए बाणके द्वारा एक ही साथ छेद डाला। उसी समय आनन्दसे जिनका हृदय भर रहा था और जो बुद्धिमानोंमें अत्यन्त श्रेष्ठ थे ऐसे गोविन्द महाराजने सब राजाओंके आगे जोरसे घोषणा की कि जो धीर वीर पहले समुद्रान्त तक पृथिवीका पालन करते थे उसी प्रशंसनीय गुणों और माननीय यशके धारक सत्यन्धर महाराजका यह पुत्र है । यह शत्रु राजाओंरूपी वनको जलानेके लिए दावानलके समान है, इसकी भुजाओंका पराक्रम बहुत ही प्रसिद्ध है, यह श्रीमान् मेरी बहिनका पुत्र है और वीर लक्ष्मीका वल्लभ है। यह सदा जयवन्त रहे ॥२१-२२॥ धनुष विषयक चातुर्य और शरीरपर प्रकट दिखनेवाले लक्षणोंसे राजाओंने उसे देखकर उसी क्षण निश्चय कर लिया कि यह ययार्थमें राजा सत्यन्धरका ही पुत्र है। इस प्रकार सुन्दर शरीरके धारक जीवन्धर कुमारको देखकर राजाओंने उनका अभिनन्दन किया ॥२३॥ जिस प्रकार वज्रकी गर्जनासे साँप भयभीत हो जाता है उसी प्रकार गोविन्द महाराजकी पूर्वोक्त घोषणासे काष्ठाङ्गार भयभीत होकर मनमें इस तरह विचार करने लगा कि
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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