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________________ नवम लम्भ ३०७ नहीं करती है । इसके सिवाय दूसरी बात यह है कि इस संसारमें जो भी शास्त्र मेरे द्वारा अदृष्टपूर्व है हे कमलमुखि ! हे बिम्बतुल्य अधरको धारण करनेवाली ! वह आकाशके कमलके समान है ॥२३॥ ___ इस प्रकार उसके वचन सुनकर जिसका हृदय कौतुकसे व्याप्त हो रहा था ऐसी सुरमञ्जरी ने पूछा कि जिनका मुखरूपी चन्द्रमा समस्त मनुष्योंके नेत्ररूपी नीलकमलों के लिए आनन्ददायक है ऐसे जीवन्धर कुमार कुछ समय पहले धैर्यके साथ-साथ मेरे मनका भी अपहरणकर न जाने कहाँ चले गये हैं ? मुझे उनकी प्राप्ति किस तरह होगी ? इस तरह उसके वचन सुनकर वृद्ध ब्राह्मणका वेष धारण करनेवाले श्रेष्ठ वक्ता जीवन्धर स्वामी पहले तो क्षण भर चुप बैठे रहे । तदनन्तर नीचे लिखे मधुर वचन कहने लगे ॥२४॥ हे कमलनयने ! बाह्य वाटिकामें जो कामदेवकी मूर्ति विराजमान है उसे तू पूजाके द्वारा प्रसन्न कर । उसके कृपा-कटाक्षसे जीवन्धर स्वामी दर्शन देकर तेरे मनोरथरूपी लताको अङ्कुरित करेंगे। हे विशाललोचने ! तुझे इस विषयमें कुछ भी संशय नहीं करना चाहिए। बल्कि हे पतली कमरवाली ! तुझे कामदेवके मन्दिर में जानेकी शीघ्रता ही करनी चाहिए ॥२५॥ तदनन्तर कमलके समान नेत्रोंको धारण करनेवाली सुरमञ्जरीने मनमें समझा कि अब तो हमारा इष्ट पदार्थ हमारे हाथमें ही आ गया है, ऐसा समझ सखियोंको साथ ले मधुर झङ्कार करनेवाले मनोहर नू पुरोंसे युक्त चरणोंको धारण करनेवाली वह सुरमञ्जरी शीघ्र ही मणिमयी पालकीपर सवार हो चल पड़ी ॥२६॥ . तदुपरान्त भयभीत हिरणके समान चञ्चल नेत्रोंको धारण करनेवाली सुरमञ्जरी उस वृद्ध ब्राह्मणको आगेकर कामदेवके मन्दिरमें पहुँची। वहाँ उसने सुन्दर केशोंवाली सखियोंके द्वारा लाये हुए सुगन्धित पुष्प आदिके द्वारा कामदेवकी पूजा की। __ तदनन्तर उस कृशाङ्गीने हस्तकमल जोड़कर एकान्तमें कामदेवसे प्रार्थना की कि हे नाथ, आप ऐसा कीजिये कि जिससे चन्दन रससे लिप्त तथा मोतियोंके विशाल हारसे युक्त मेरे वक्षःस्थल एवं स्तनोंपर जीवन्धर स्वामी आरूढ़ हो सकें ॥२५॥ इसके पूर्व ही बुद्धिषेण कहीं छिपा बैठा था। उसने सुरमञ्जरीकी उक्त प्रार्थना सुनकर उत्तर दिया कि तुझे वर प्राप्त हो गया। बुद्धिपेणकी इस गुप्त वाणीको सुनकर सुरमञ्जरीने समझा कि यह कामदेवकी ही वचनरूपी धारा दयाके द्वारा प्रकट हुई है। उसका मन प्रसन्नतासे भर गया और ज्योंही उसने गर्दन घुमाकर देखा तो सामने जीवन्धर स्वामी विराजमान थे। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे मानो बाहर आये हुए साक्षात् कामदेव ही हों, अथवा चलते-फिरते सुमेरु पर्वतके शिखर ही हों, अथवा सञ्चार करता हुआ नेत्रोंका आनन्द ही हो, अथवा शरीरधारी शृङ्गार रस ही हों, अथवा आकारसहित अद्भुत रसका प्रकार ही हों, अथवा रूपधारी अपना भाग्य ही हों। उनका ललाट तट ऐसा जान पड़ता था मानो लक्ष्मीकी विश्रान्तिके लिए लाकर रखा हुआ सुवर्णमय शिलातल ही हो । उनकी लम्बी नाक ऐसी जान पड़ती थी मानो नेत्रोंकी विशाल वृद्धिको रोकनेके लिए बाँधा हुआ पुल ही हो। उनके दोनों कान सरस्वतीके हिंडोलेके समान आचरण करनेवाले मणिमय कुण्डलोंसे सुशोभित थे। उनका वक्षःस्थल लक्ष्मीके क्रीड़ा करनेके धारागृह (फौव्वारे) की शङ्का करनेवाले मुक्ताहारकी कान्तिरूपी स्वच्छ जलसे शोभित था। उनकी दोनों गोल जांघे कदली वृक्षकी संभावना प्रकट कर रही थीं और उनके चरणरूपी पल्लव लाल कमलका मद हरनेमें निपुण थे। उस मृगनेत्रीने जीबन्धर स्वामीको देखकर शीघ्र ही अपने शरीरमें रोमाञ्च तथा कम्पनको, नेत्रकमलोंमें हर्षाश्रुओंके प्रवाहको, मुखचन्द्रमें मन्द हास्यको, स्थूल नितम्बतटपर
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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