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________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य तदनन्तर जीवन्धर स्वामीने शुभ मुहूर्त में अग्नि प्रज्वलित रहते हुए सागरदत्तके द्वारा दी हुई, बिजली के समान सुन्दर शरीरवाली कुमारी विमलाका पाणिग्रहण किया || ६७ || तत्पश्चात् जिसका खिला हुआ सुन्दर रूप था, चकोरके समान नेत्र थे, और उठते हुए उज्ज्वल कठोर स्तनोंसे जिसका शरीर सुशोभित था, जो ऐसी जान पड़ती थी मानो मूर्तिधारिणी चमत्कृति ही हो अथवा दिव्य रूपको धारण करनेवाली कामदेवकी पत्नी रति ही हो ऐसी उस विमलाका जीवन्धर स्वामीने रागभावसे उपभोग किया || ६८ ॥ ३०४ इस प्रकार महाकवि श्री हरिचन्द्रविरचित जीवन्धरचम्पू - काव्य में विमला प्राप्तिका वर्णन करनेवाला आठवाँ लम्भ समाप्त हुआ । नवम लम्भ तदनन्तर जिस प्रकार चन्द्रमा पूर्व दिशाको छोड़कर नक्षत्रसमूह के साथ जा मिलता है उसी प्रकार सुन्दररूपके धारक जीवन्धर स्वामी कृशाङ्गी विमलाको समझा-बुझा तथा छोड़कर मित्रोंके साथ जा मिले ॥१॥ जिस प्रकार अङ्कुर अङ्कुर से प्रकट होनेवाले आमके नये पल्लवों से सुशोभित वसन्तको कोयलें अच्छा मानती हैं उसीप्रकार वरके चिह्नोंसे युक्त तथा मणिमय आभूपणोंसे सुशोभित शरीरवाले जीवन्धर स्वामीको भाई-बन्धु अच्छा मान रहे थे || २ || उन्हीं में एक बुद्धिषेण नामका विदूषक था । उसने शीघ्र ही व्यङ्गयके साथ आँखें बड़ीकर तथा गाल फुलाकर जीवन्धर स्वामीसे कहा ||३|| कि हे मित्र ! जिस कन्या की दूसरे लोग उपेक्षा करते रहे उसे विवाहकर आप अपने-आपको बड़े हर्षसे कृतकृत्य- जैसा मान रहे हैं जबकि अपने आपको निर्लज्ज मानना चाहिए ||४|| हाँ, आप प्रशंसनीय तब हो सकते हैं जब मनुष्योंके साथ द्वेष करनेवाली एक नवीन तारुण्यरूपी मञ्जरी से सुशोभित सुरमञ्जरीको विवाह लावें ||५|| इस प्रकार बुद्धिषेणकी बात सुनकर जीवन्धर स्वामी मुसकाने लगे और 'कल ही उसे यहाँ कामके कोटमें ले आऊँगा' ऐसी प्रतिज्ञाकर उसके विवाह के योग्य उपायका मन ही मन चिन्तवन करते हुए वहाँ से चल पड़े । बुद्धिमानोंमें श्र ेष्ठ जीवन्धर स्वामीने क्रम क्रमसे अनेक उपायोंका विचार किया पर अन्तमें यक्षराजके मन्त्रको ही उन्होंने सुरमञ्जरीकी प्राप्ति करानेवाले साधनको निश्चित किया । असीम कौशलके धारक जीवन्धर स्वामी उस बगीचेसे निकलकर तथा वृद्धका रूप रखकर नगर में प्रविष्ट हुए || ६ || जिसकी दाँतों की पंक्ति विरल है, शरीरयष्टि काँप रही है, प्रत्येक कला और प्रत्येक निमेष से जिसकी दृष्टि अस्पष्ट होती जा रही है, जिसके गलेसे खाँसी आ रही है, जो बार बार कफके टुकड़े उगलता है, जिसके बाल सफेद एवं बिरले हैं ऐसा वह वृद्ध दण्ड लेकर इधर-उधर चल रहा था ॥७॥ वहाँ गलियों में प्रवेश करते हुए एवं सर्पके द्वारा छोड़ी केंचुलीके समान त्वचासे विचित्रता लिये हुए उस वृद्धको देखकर नगरवासी लोगों में कितने ही तो वैराग्यमें तत्पर हो गये और कितनों ही के हृदय दयासे भींग गये । वह वृद्ध आगेकी ओर हाथमें डंडा लिये था और पीछे से उसका शरीर अत्यन्त भुक रहा था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो प्रत्यञ्चा सहित धनुषकी ही उपमा धारण कर रहा था । उसका मस्तक शुक्तिकाकी भस्मके समान सफेद केशपाशसे सहित था तथा कुछ कुछ तिरछा काँप रहा था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो पहलेके रूप
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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