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प्रस्तावना
सम्पादन-सामग्री जीवन्धरचम्पूका सम्पादन श्री कुप्पू स्वामी द्वारा प्रकाशित मूल पुस्तक तथा बम्बईसे प्राप्त एक हस्तलिखित पुस्तकके आधारपर किया गया है। (मूल पुस्तक मुद्रित है अतः उसके परिचयदानकी खास आवश्यकता प्रतीत नहीं होती पर ) बम्बईसे आगत हस्तलिखित प्रति परिचयदानकी अपेक्षा रखती है। संपादनके लिए हस्तलिखित प्रतियोंका समवलोकन अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है इसलिए इसके लिए हस्तलिखित प्रतियोंको बहुत तलाश की। अनेक जैन - अजैन भाण्डारोंके अध्यक्षोंको लिखा, समाचारपत्रों में भी इसकी सूचना छपाई पर किसी भी भाण्डारमें यह प्रति उपलब्ध नहीं हुई। अन्तमें मैं एक प्रकारसे निराश ही हो गया था तब मेरे मित्र पं० कुन्दनलालजी, बम्बई, मैनेजर रामचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बईने सूचना दी कि जीवन्धर चम्पूकी एक प्रति भूलेश्वर जैन-मन्दिर, बम्बईमें है। सूचना ही नहीं उन्होंने प्रयत्न कर वह प्रति मेरे पास भिजवा भी दी। उसी पुस्तकके आधारपर मुद्रित प्रतिमें पाठ संशोधन तथा पाठान्तरों का संग्रह किया गया। इस प्रतिका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
यह प्रति भूलेश्वर जैन-मन्दिर, वम्बईसे पं० कुन्दनलालजीके सत्प्रयत्न एवं मन्दिर सम्बन्धी व्यवस्थापक समितिके सौहार्द्रसे प्राप्त हो सकी। इसमें ११४७ इञ्चके ७५ पत्र हैं, प्रत्येक पत्रमें १५ पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्ति में ३० से ३५ तक अक्षर हैं, काली और लाल स्याहीसे लिखी गई है। इस पुस्तकके अन्तमें लिपि-लेखनके विषयमें लिखा है कि
"यादृशं पुस्तकं दृष्टं तादृशं लिखितं मम ।
शुद्धाशुद्धमशुद्धं वा मम दोपो न दीयते ॥" अस्मन् ग्रन्थे अजमेरमध्ये श्रीचन्द्रप्रभचैत्यालयमध्ये समाप्त क्रियते शुभसम्बत् १८५६ नृपतिविक्रमे पौषकृष्णा १३ शनैश्चरंवासरे शुभं । मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमः प्रभुः। मङ्गलं कुन्दकुन्दाद्या जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥ श्री जिनाय नमः ।।
अर्थात् यह ग्रन्थ अजमेरके चन्द्रप्रभ चैत्यालयमें पौष कृष्ण १३, शनिवार विक्रम संवत् १८५६ को लिखा गया है, किसने लिखा है इसका उल्लेख नहीं है । इस पुस्तकका लेख अत्यन्त अशुद्ध है। बीच-बीचमें कितने ही पाठ छूट गये हैं और कुछ दो-दो बार लिखे गये हैं, य और पमें प्रायः अभेद है । लाल स्याहीके निशान केवल शोभाके लिए लगाये गये हैं। जान पड़ता है कि इसका लिपिकार संस्कृत भाषासे अनभिज्ञ रहा है। अशुद्ध होनेपर भी कुछ स्थलोंपर ऐसे पाठ मिले हैं जो कि कुपूस्वामीके द्वारा प्रकाशित पुस्तकमें छूट गये थे तथा परिवर्तित हो गये थे। ऐसे छूटे हुए श्लोकों और गद्य खण्डोंको मैंने टिप्पणीमें 'ब' पुस्तकके नामसे उद्धृत है।
___ पुस्तककी अशुद्धि बहुलता देख इसे मूल पुस्तक माननेका साहस नहीं हो सका अतः श्री कुप्पूस्वामीके द्वारा प्रकाशित पुस्तकको हो मूल पुस्तक मानकर इसका संशोधन-संपादन किया गया है। ग्रन्थका नाम
इस ग्रन्थके पुष्पिका वाक्यों में सर्वत्र ग्रन्थका नाम 'चम्पु जीवन्धर' उल्लिखित किया गया है पर आजकल जीवन्धर चम्पू इस अतिसुखद नामसे ही इसका व्यवहार किया जाने लगा है,