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________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य ३०२ जो आपकी उन्नति सुनी थी उसे आकाशसे होनेवाली रत्नवृष्टिके समान बहुत कुछ माना । तद्नन्तर उसे बार-बार समझाकर और उससे पूछकर हमलोग आपके समीप आये हैं । जिनका चित्त स्नेहसे भरा हुआ था ऐसे जीवन्धर स्वामी यह जानकर बहुत ही दुखी हुए कि हमारी माता जीवित रहनेपर भी मृतकके समान जीवन बिता रही है। उनका मातृप्रेम उमड़ पड़ा और वे उसे देखनेके लिए तत्काल ही शीघ्रता करने लगे || ५० ।। तदनन्तर कुरुवंश चन्द्र जीवन्धर स्वामी, उसी क्षण समस्त बन्धुओंसे और खासकर भार्या कनकमालासे पूछकर तथा उसे सन्तोष दिलाकर मित्रमण्डलीसे मण्डित हो दण्डक वनकी ओर चल पड़े । यद्यपि राजपुत्रोंने उनके साथ चलनेका कुतूहल प्रकट किया था परन्तु उन्होंने उन्हें क्रम-क्रम से वापिस कर दिया था । वहाँ जाकर जीवन्धर स्वामीने उस विजया देवीके दर्शन किये जिसका कि शरीर अत्यन्त दुर्बल था, निश्वासरूपी धूमके कारण जिसका मुख विवर्ण हो गया था, जिसका अन्तःकरण अनेक चिन्ताओंसे व्याप्त था, आँखोंमें आँसू भर रहे थे, ताम्बूल आदिके न मिलने से जिसकी दन्त-पंक्तिमें बहुत भारी मैल लग गया था और जिसके मस्तकपर जटारूपी लताएँ लिपट रही थीं ||५१|| पुत्रको देखते ही उसके कठोर स्तनोंसे दूध भरने लगा और नेत्र आँसुओं से भर गये । जिस प्रकार चिरकाल बाद दिखे हुए प्रद्युम्नको देखकर माता रुक्मिणीने अपने हृदय में उसके प्रति शोक किया था उसी प्रकार विजया देवीने भी चिरकाल बाद जीवन्धरको देखकर उनके प्रति हृदय में शोक किया था ॥५२॥ चरणकमलों में नम्रीभूत जीवन्धर कुमारको माताने अनेक आशीर्वाद देकर अपनी भुजाओं से लपेट लिया । उस समय उसका समस्त शोक जाता रहा और शोकके स्थानपर आदेश की तरह हर्ष उत्पन्न हो गया || ५३ || उसी समय यक्षराज सुदर्शन भी उन दोनोंके समक्ष आ पहुँचा। उसने स्नान, सुगन्धित विलेपन, फूलों की माला, मणिमय आभूषण और रेशमी वस्त्र आदिसे पूजा की, बहुत भारी स्नेहके साथ जीवन्धर आदि कुमारों तथा विजया देवीको विभिन्न प्रकारके मधुर वार्तालापोंसे आश्वासन दिया और यह सब कर चुकनेके बाद वह कान्तिसे जगमगाते हुए विमानके द्वारा अपने स्थानपर चला गया । निर्दोष शीलसे पवित्र माता अगणनीय पुण्यको धारण करनेवाले श्र ेष्ठ पुत्रसे बोली- -क्या एक वर्षके बाद शत्रुके पतनके साथ तुझे अपने पिताका पद प्राप्त होगा ? || ५४ || माताकी यह वाणी सुनकर जिन्हें बहुत भारी कुतूहल उत्पन्न हुआ था ऐसे जीवन्धर स्वामी उसका अभिप्राय जानकर इस प्रकार उत्तर देने लगे || ५५|| हे माता ! मेरे वाणरूपी दावानल उन सेनारूपी वनोंको भस्मकर देते हैं जिनमें कि गजराजरूपी पर्वतोंसे भरनेवाली मदजलकी सघन धारा ही भरना है, जो चलते हुए खड्ग-तलवाररूपी खड्ग - गेंडा हाथियोंसे सहित हैं, जो शब्द करते हुए रथाङ्गपहियारूपी चक्रवाक पक्षियोंसे युक्त हैं और शर - वाणरूपी तृणसे सहित हैं ||५६|| मेरे हाथ के द्वारा झुकाये हुए धनुषसे निकले बाणरूपी सर्पोंका समूह शत्रु राजाओंकी स्त्रियों की मन्द- हास्यरूपी सुगन्धित दूधकी धाराको पीकर उनके हृदयके बीच में बहुत भारी शोकरूपी हलाहल विष उत्पन्न करते हैं ||२७|| अथवा जिसमें धूलरूपी अन्धकार फैल रहा है और जो शत्रुरूपी कमलोंको कुड्मलित करनेमें प्रवीण हैं ऐसी युद्धरूपी अर्धरात्रिके होनेपर मेरी तलवार शत्रु-लक्ष्मीको लाने के लिए श्र ेष्ठ दूतीका काम करती है ||५८ || अनेक गुणोंकी खानभूत मैं युद्धके आँगन में जब अपने धनुषको शब्दायमान करता हूँ तब बलाधिपति भाग जाता है, धरापति तिरष्कृत हो जाता है, गुजरातका राजा जर्जर हो जाता है, विद्याधर भयभीत हो जाता है, और कोङ्कण देशका स्वामी घायल हो जाता है ॥५६॥
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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