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जीवन्धर चम्पूकाव्य
से समस्त घोषमें हलचल मचा दी ||२४|| हे राजन् ! शत्रुके सैनिकोंने अपने उठते हुए प्रताप के पटलसे सूर्यके गोमण्डल - किरण समूहको और आपके गोमण्डल - गायोंके समूहको रोक लिया है तथा अपने प्रचुर अट्टहासके द्वारा लोककी स्थिति तथा शत्रुकी धीरताको ढीला कर दिया है ||२५|| गोपालोंकी यह चिल्लाहट सुनकर राजाने सेनाको आदेश दिया और शत्रु- वीरोंको नष्ट करनेवाले जीवन्धर स्वामी श्वसुर के रोकनेपर भी युद्ध के लिए चल दिये ||२६||
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तदनन्तर जीवन्धर और नन्दाढ्य जिनके आगे चल रहे थे ऐसे सुमित्र आदि राजकुमार एक बड़ी भारी सेनाको आगेकर क्रमसे रणाङ्गण में जा उतरे । जिन्होंने अपने वेगसे गरुड़को जीत लिया था ऐसे घोड़ों के समूहकी अनेक चालोंसे खण्डित पृथिवीतलसे उड़ती हुई धूलकी पंक्तियों से बिलकुल सुखाई हुई स्वर्ग तथा पृथिवीकी नदियोंको जिन्होंने बहुत दूर तक ऊपर फैलाये हुए शुण्डादण्डकी शीघ्रतापूर्ण फूत्कार सम्बन्धी छींटोंके समूह से तथा दोनों गण्डस्थलोंसे झरनेवाली मदकी धारासे पूर्ण भर दिया था । इसीलिए जिनका 'सिन्धुर' यह सार्थक नाम था ऐसे हाथियोंके कारण वह सेना धीरे-धीरे चल पा रही थी । समुद्रकी फेनराशिके समान आचरण करनेवाले वस्त्रोंसे परिष्कृत पताकादण्डोंसे मण्डित रथोंके समूह उस सेनामें एकत्रित थे । और काले कुरतारूपी सम्पत्तिको धारण करनेवाले पैदल सिपाहियोंसे व्याप्त थी । उन राजपुत्रोंकी भुजाएँ पद्मराग मणियोंके कुण्डलोंकी कान्तिसे सुशोभित थीं इसलिए ऐसी जान पड़ती थीं मानो अन्तरङ्ग की तरह बाहर की ओर भी फैलते हुए प्रतापको धारण कर रहे थे । जो नम्रीभूत नहीं होते हैं ऐसे मण्डलीक राजाओंको ( पक्ष में गोलाकार पदार्थों को ) ये लोग तिरस्कृत कर देंगे मानो इस भय से सेवाके लिए आये हुए चन्द्रमा और सूर्य ही थे ऐसे बाजूबन्दोंसे वे सब सुशोभित थे । इसके सिवाय उनके वक्षःस्थल अत्यन्त उन्नत उठे हुए मोतियोंके हारोंसे मनोहर थे इसलिए नक्षत्रों की मालासे अलंकृत शरदऋतुके आकाशकी तुलना कर रहे थे ।
रणक्रीड़ाके अग्रभागमें उत्पन्न हुआ भेरीका शब्द समस्त दिक्पालोंके महलोंके शिखरों और झरोखोंके किवाड़ोंको शीघ्र ही तोड़कर उनके भीतर घुस गया था और बहुत लम्बे कुमार्ग में चलने से उत्पन्न हुए खेद के कारण मानो विश्राम ही कर रहा था ||२७||
उस समय दोनों ओरके सैनिकों में परस्पर निम्नाङ्कित वीरतापूर्ण वार्तालाप हो रहे थे ।
जिनका यश तीनों जगत् में प्रसिद्ध है ऐसे हम लोगों को इस तलवाररूपी लताने पहले शत्रु-स्त्रियोंके नयनान्त भागसे निकलनेवाले कज्जलमिश्रित जलका पान किया था । इसलिए काली हो गई थी । इस समय युद्धकी सीमामें आप लोगोंका रक्त पीनेसे लाल हो रही है और लक्ष्मीकी मन्द मुसकानसे सफ़ेद हो जावेगी । इस प्रकार आश्चर्य है कि यह अनेक रङ्गोंसे चित्रविचित्र हो जायगी ||२८|| यतश्च आप लोग गोवृन्द — गायोंके समूह में आसक्त हैं इसलिए आप लोगों को हमारी भुजाएँ मित्रोंकी तरह युद्धके द्वारा आज निमेषमात्रमें ही गोके पास - पृथिवी के पास भेज देंगी- - आप लोगोंको मारकर धराशायी बना देंगी। अच्छा हो कि आप लोग हमारे सामने हठपूर्वक खड़े न हों ||२६|| अरे पागल पुरुषो ! या तो तुम लोग शीघ्र ही पशुओं को छोड़ो या प्राणोंको छोड़ो। राजाके सामने या तो अपना मस्तक झुकाओ या धनुष झुकाओ । या तो मुखमें शरवृन्द-- तृणोंका समूह धारण करो या हाथमें शरवृन्द--- वाणोंका समूह धारण करो । या तो राजाकी शरण लो या यमराजके घरको अपना शरण बनाओ - घर बनाओ || ३० ॥
कुछ अन्य लोग ऐसा भी कह रहे थे
अरे मूर्ख पुरुष ! इन वचनोंके समूहसे क्या होनेवाला है ? इन व्यर्थके आडम्बरोंसे क्या प्रयोजन सिद्ध होगा और अपनी इस प्रशंसासे क्या सिद्धि होनेवाली है ? वास्तवमें यह आत्मप्रशंसा नीच मनुष्योंके ही योग्य है । किन्तु जो इधर-उधर दौड़नेवाले रथोंके पहियोंसे खुदी हुई पृथिवीपर धनुषरूपी मेघसे शरवर्षा- -- वाण वर्षा ( पक्षमें जल वर्षा ) करता है उसी विजयी