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________________ २८८ जीवन्धरचम्पूकाव्य खान ( पक्षमें रात्रिको करने वाला), कलङ्की और क्षयिष्णु हो गया है ||४२ || मेरा आलय- घर आपके चरणकमल सम्बन्धी धूलिके समूहसे शुद्ध किया जाय यह हर्षकी कली हमारे मन में बहुत समय से विद्यमान है सो आज आप बुद्धिमानके द्वारा विकसित की जाने योग्य है नहीं तो निश्चय ही मेरा आलय आकारसे रहित जो लय शब्द उसके वाच्यार्थको - विनाशको प्राप्त हो जायगा ||४३|| समस्त भवनोंके समूह, यदि सत्पुरुषोंके चरण-कमलोंकी धूलिके संपर्क से रहित हैं तो वे अपने नामसे विपरीत अर्थको ही प्राप्त होते हैं यह बात समस्त विद्वानों में प्रसिद्ध है इसलिए हे निखिल गुणों के सागर ! मेरे वचन अङ्गीकृत करो-स्वीकृत करो ||४४ ॥ तदनन्तर दयालु चित्तके धारक कुरुकुल चन्द्र जीवन्धर स्वामी सेठके वचन स्वीकृत कर सूर्यके रथके वेगकी निन्दा करनेवाले रथके द्वारा गोपुरद्वार में प्रवेशकर नगर की गलियों में पहुँचे। वहाँ महलोंकी दोनो ं ओरकी पंक्तियों के झरोखोंसे स्त्रियोंके कटाक्ष निकल रहे थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो दोनों पंक्तियों के बीच में नील कमलके हरे-हरे वन्दनवार ही बाँधे गये थे । जीवन्धर स्वामीके नेत्र रूपी कमल कुछ कुछ लाल थे और कामदेव के समान जान पड़ते थे । उन्हें देखनेके लिए तालफलके समान स्तनों वाली एवं सर्पिणीके समान चोटी वाली एक एक बढ़कर स्त्रियाँ इकट्ठी हुई थीं । जीवन्धर स्वामी गलियों में से जाते समय उन स्त्रियों के नेत्रो से आनन्दाश्रुओं की परम्पराको, कटीतट से नीवीबन्धनको, और हृदयसे धैर्यकी परिपाटीको एक साथ विगलित कर रहे थे । इस तरह धीरे-धीरे चलते हुए वे सुभद्र सेठ के घर पहुँचे । वहाँ सुवर्णमय सिंहासनको अलंकृत करनेवाले तथा इन्द्रके समान वैभवके धारक जीवन्धर स्वामीसे सेठने कन्याके साथ विवाह करनेकी बहुत वार प्रार्थना की जिसे इन्होंने स्वीकृत कर लिया ||४५|| संसारके अद्वितीय वीर जीवन्धर स्वामीने उत्तम लग्नमें अग्निकी साक्षी पूर्वक सुभद्र सेठके द्वारा प्रदत्त कोमल शरीरकी धारक क्षेमश्रीका पाणिग्रहण किया ||४६ || जो स्वेदयुक्त अङ्गुलि रूप कलियों से सुशोभित था ऐसी सुकुमाराङ्गी क्षेमश्रीका कोमल कर-कमल ग्रहणकर जीवन्धर स्वामी संशय करने लगे ||४०|| कि क्या यह तुषारसे व्याप्त कमलका कुड्मल है ? अथवा नहीं, यह कमलका कुड्मल नहीं है क्योंकि उसमें हाथ जैसी कान्ति नहीं होती । तो क्या नखरूपी चन्द्रमाका हिम है ? अथवा नहीं, यह नखचन्द्रका हिम नहीं है क्यों कि उसमें सुगन्धि नहीं होती । तो क्या हस्तकमलसे भरता हुआ मकरन्द है ? अथवा नहीं, यह मकरन्द नहीं है । तो क्या है ? अमृत ही प्रसारको प्राप्त हो रहा है || ४७॥ बहुतभारी कान्तिके धारक एवं मणिमय आभूषणों से सुशोभित वे दोनों दम्पती वेदीके ऊपर ऐसे सुशोभित हो रहे मानो रति और कामदेव ही हों ॥ ४८ ॥ जो अपने चरणोंसे कमलोंकी निन्दा करती थी, ओके युगलसे श्रष्ठतम कदलीके वृक्षकी शोभा धारण करती थी, हाथों से नवपल्लवों की उपमा प्रकट करती थी और स्तनयुगलसे चकवा चकवीका तिरस्कार करनेमें निपुण थी ऐसी श्रमश्री जीवन्धर स्वामीके समीप बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थी ॥ ४६ ॥ इस प्रकार महाकवि श्री हरिचन्द्रविरचित जीवन्धर चम्पू - काव्यमें क्षेमश्रीकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला छठा लम्भ समाप्त हुआ ।
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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