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________________ पञ्चम लम्भ समूहसे सुशोभित थी तथा जहाँ सूर्य भी दिखाई नहीं देता था। वृक्षोंके समूहमें मेघमालाकी भ्रान्ति होनेसे जिसने अपना केकावाणीयुक्त कण्ठ दूरसे ऊपर उठा रक्खा है और सामनेसे आती हुई जोरदार वायुसे जिसका शिखण्ड ताडित हो रहा है ऐसा मयूर देखा। कहीं बड़ी बड़ी झाड़ियोंके बीच कुटुम्ब बनाकर रहने वाले शबरोंका समूह देखा था। कहीं कदम्ब वृक्षके स्कन्धपर सूड रखकर हथिनियोंके साथ खड़े हाथियोंके समूह देखे थे ! कहीं दूध पीने वाले बच्चोंसे रुकी हरिणीको गरदन मोड़कर देखते हुए दौड़ने वाले हरिणको देखा था। कहीं दाँतोंके मध्यमें स्थित घासका ग्रास कुतरनेका शब्द रोककर अलसाये हरिणोंके द्वारा सुनी जाने वाली गानकलामें निपुण भीलोंकी स्त्रियोंका समूह देखा, कहीं गर्जना करने वाले सिंहोंका समूह देखा था और कहीं पहाड़के समान बड़े-बड़े अजगरोंका समूह देखा था। इस प्रकार यह सब देखते हुए क्रम-क्रमसे जङ्गलका बहुत भारी मार्ग तयकर जब वे आगे बढ़े तो उन्होंने किसी जङ्गल में बहुत बड़े बेगसे वनको आक्रान्त करनेवाला दावानल देखा। उस दावानलने उठती हुई धूमसे ऊँचे-ऊँचे वृक्ष व्याप्त कर रक्खे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वृक्षोंके समूहको सजल मेघोंसे श्यामल ही कर रहा था और दाहसे उत्पन्न हुए चट-चट शब्दसे ऐसा जान पड़ता था मानो अट्टहास ही कर रहा था। ___ उसमें तमाल वृक्षोंके समूहके समान कान्तिवाला जो धुएँका पटल आकाश-तलका आलिङ्गन कर सब ओर बढ़ रहा था वह ऐसा जान पड़ता था मानो सूर्यके दर्शनसे रहित सघन वृक्ष-समूहके तल प्रदेशोंमें सघन अंधकार चिर कालसे रह रहा था अग्निके भयसे वही ऊपरकी ओर उठ रहा था॥ १८ ॥ दावानलसे उत्पन्न होकर दिशाओंके अन्तरालको व्याप्त करने वाला बहुत बड़ा धुएँका समूह ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशलक्ष्मीके द्वारा पहिना हुआ नील वस्त्र ही था ॥ १६ ॥ उस समय दावानलसे व्याप्त वन, अग्निकी वृद्धिको सूचित करनेवाले तिलंगोंसे उस नभस्तलके समान जान पड़ता था जिसमें कि नक्षत्रसमूहका उदय हो चुका था। देदीप्यमान ज्वालाओंके समूहसे उस नभस्तलके समान मालूम होता था जो कि सन्ध्याकालीन रागसे रञ्जित हो रहा था । धुएंके समूहसे उस नभस्तलके समान सुशोभित रहा था जो कि अन्धकारसे व्याप्त था और जलती हुई अग्निसे उस नभस्तलसे समान जान पड़ता था जो कि संध्याके द्वारा लाल वर्ण दिखने वाले चन्द्रमण्डलसे चुम्बित था। उस समय दावानलके आक्रमणके भयसे हरिणोंका समूह इधर-उधर भाग रहा था और छोटे-छोटे नील कमलोंको जीतने वाले अपने चञ्चल नेत्रोंके कोणोंसे दावानलको नष्ट करनेके लिए ही मानो वेगसे बहनेवाली यमुना नदीको प्रवाहित कर रहा था ॥ २० ॥ तदनन्तर धूमसमूहकी चुङ्कारसे, ज्वालाओंके समूहकी फटफटात्कारसे, भील लोगोंकी हाहाकारसे और बीचमें रुके प्राणियोंकी दुःख भारी चिल्लाहटसे जिसने दिग्गजोंको बहरा कर दिया था और अग्निके भयसे भागते हुए वनदेवताओंकी ढीली चोटियोंकी समानता रखने वाले धुएँके समूहसे जिसने समस्त लोकको अन्धा कर दिया था ऐसी अग्निके प्रज्वलित होने पर वह वन ऐसा जान पड़ता था मानो धूमसमूह ज्वाला और अग्निकी चटचटात्कारसे आगे चल कर प्रकट होने वाले मेघसमूह बिजली तथा गर्जनाकी हँसी ही उड़ा रहा था। दयासागर जीवन्धर स्वामीने उस वनमें दावानलके द्वारा जलता हुआ हाथियोंका समूह देखकर उसे बचानेकी इच्छा की ॥२१॥ जीवन्धर स्वामीका अभिप्राय जानकर यक्षराजके द्वारा निर्मित मेघ तत्काल ही जलकी वर्षा करने लगे। मेघ आकाशरूपी आँगनमें ऐसे जान पड़ते थे मानो मेघाकार परिणत हुए धुएँके विभिन्न प्रकार ही हों। उन्होंने अपनी उठती गर्जनाके
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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