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________________ चतुर्थ लम्भ ૨૭૫ इतनेमें ही चाटुवचन कहनेमें चतुर कोड़ा-शुकने प्रसङ्ग पाकर गुणमालाका पत्र उन्हें दे दिया । वह पत्र क्या था मानो फलीभूत मनोरथरूपी कल्पवृक्षका पत्र ही था । जीवन्धर स्वामी यद्यपि उस पत्रको तत्काल ही देख लेना चाहते थे तो भी आनन्दाश्रुओंके निर्गमसे नेत्रोंका मार्ग रुक जानेके कारण उसमें विघ्न पड़ गया। अन्तमें हर्षके प्रवाहको जिस किसी तरह रोककर उन्होंने वह पत्र बाँचा । उसमें लिखा था कि हे कामको जीतनेवाले रूपसे उज्ज्वल वल्लभ ! तुमने वनके तीरपर कामदेवके बाणरूपी दण्डसे उछाली हमारे ह्रदयरूपी फूलकी गेंद चुरा ली थी। उस गेंदका परिचय यह है कि उसमें मूर्छारूपी उत्पल लग रहा है और सुन्दर रागरूपी उत्तम पल्लव लगे हुए हैं। वह गेंद अब वापिस दे दीजिये ॥३३॥ आनन्दके आँसुओंसे जिनका गला रुक गया है ऐसे जीवन्धरने गद्गद स्वरसे वह पत्र पढ़ा और शीघ्र ही हर्षपूर्वक गुणमालाके प्रति निम्नाङ्कित उत्तर-पत्र लिखा ॥३४।। उन्होंने लिखा कि मेरी दृष्टिरूपी हंसी सर्वप्रथम तुम्हारे मुखरूपी कमलके पास गई थी फिर स्तनरूपी कुङ्मलोंके पास आकर हर्षित हुई और तदनन्तर रससे भरे हुए नाभिरूपी तालाबके बीच विहार कर रही है सो वह दृष्टिरूपी हंसी यदि तुम दे दो तो मैं भी तुम्हारी हृदयरूपी गेंद दे दूँ॥३५॥ - उधर गुणमालाकी दशा बड़ी विचित्र हो रही थी, हृदयमें जलती हुई कामाग्निके धूमके समान निकलनेवाले निःश्वाससे उसका नाकका मोती मानो नीलमणि बन गया था । अत्यन्त दुर्बल शरीर होनेके कारण सुवर्णकी अंगूठी चूड़ीका काम देने लगी थी। मुखरूपी चन्द्रमाकी चाँदनीसे लिप्त होनेके कारण ही मानो उसको शरीररूपी लता सफद पड़ गई थी। भावनाकी प्रकर्षताके कारण प्रत्येक दिशामें दिखते हुए जीवन्धरको देखकर वह उनकी अगवानी करनेका यद्यपि प्रयत्न करती थी तो भी मृणालके समान कोमल अङ्गोंसे वह समर्थ नहीं हो पाती थी। भेजे हुए शुकके आनेमें जो विलम्ब हो रहा था उसे वह सहने में असमर्थ थी इसलिए एक वर्षकी भयभीत हरिणीकी तरह अपने कटाक्ष प्रत्येक दिशामें डाल रही थी। इतने में ही जाति और कार्य दोनोंकी अपेक्षा पत्री (पक्षी, पक्षमें पत्र युक्त) शुक वहाँ आ पहुँचा । उसे देखते ही वह चिल्ला उठी कि आओ-आओ, मैं विलम्ब सहन नहीं कर सकती । जब वह शुक पास आ गया तब उसने उसे अपनी भुजाओंके युगलसे ऊपर उठा लिया। उस समय हर्षातिरेकके कारण उसका भुजायुगल इतना अधिक फूल गया था कि उसका कञ्चक-वस्त्र ही फट गया था। क्रीड़ा-शुक जो पत्र लाया था गुणमालाने उसे ले लिया। निरन्तर पड़नेवाले काले-काले कटाक्षोंसे वह पत्र सर्वत्र स्याहीसे पुते हुए के समान विचित्र हो रहा था और इसी कारण उसपर जो सुन्दर अक्षर लिखे हुए थे उन्हें वह देख नहीं सकती थी। तदनन्तर प्रीतिरूपी लताके पुष्पके समान आचरण करनेवाली मन्द मुसकानसे वह पत्र सफेद हो गया इसलिए उसपर लिखा पद्य बाँचनेमें आने लगा। उसे बाँचकर वह वचनागोचर आनन्दको प्राप्त हुई। जब मानसिक और शारीरिक चेष्टाओंके द्वारा माता-पिताको गुणमालाका यह हाल मालूम हुआ तब वे बहुत ही प्रसन्न हुए सो ठीक ही है क्योंकि योग्य भाग्यवान वर दुर्लभ ही होता है ॥३८॥ तदनन्तर गुणमालाकी ओरके किन्हीं दो पुरुषोंने गन्धोत्कटके पास जाकर यह वृत्तान्त सुनाया । कर्णपुटसे इस वृत्तान्तको सुनकर गन्धोत्कटको बहुत ही आश्चर्य हुआ। तत्पश्चात् मनमें आनन्दको विस्तृत करते हुए गन्धोत्कटने जिह्वाके द्वारा स्वीकृति-वचनरूपी मकरन्दकी धारा प्रकट कर दी अर्थात् स्वीकृति दे दी। ___ अथानन्तर जीवन्धर कुमारने श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न मुहूर्तमें कुवेरमित्रकी पुत्री गुणमालाको विवाह लिया ॥३॥
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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