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________________ २७२ जीवन्धरचम्पूकाव्य रहित उसके दोनों नेत्र निष्कम्प मीनकी शोभा धारण कर रहे थे, और मणियोंके आभषणोंसे उज्ज्वल उसका शरीर फूली हुई कल्पलताके समान सुशोभित था ॥१४॥ तदनन्तर जब कल्पवृक्ष हर्षाश्रुओंकी बूंदोंके समान फूलोंके समूह बरसाने लगे, दुन्दुभियों के शब्द दिग दिगतोंमें फैल गये, मन्दार वनमें घूमनेवाली मन्दवायु धीरे-धीरे बहने लगी, करोड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान यक्ष सब ओरसे प्रणाम करने लगे, और नूपुरोंकी मनोहर भंकारसे दिशाओंके अन्तरालको वाचालित करनेवाली देवाङ्गनाएँ जब मनोहर गान-कलासे सुशोभित संगीतका कौशल दिखाने लगी, तब वह यक्षराज सोकर उठे हुए के समान प्रत्येक दिशाओंमें दृष्टि चलाता हुआ आश्चर्य और आनन्दके प्रवाहमें एक साथ निमग्न हो गया। तत्काल उत्पन्न हुए अवधिज्ञानरूपी जहाजका आश्रय लेकर उसने ज्ञान कर लिया कि हमारी यह देवपर्याय जीवन्धर कुमारके द्वारा उपदिष्ट मन्त्रके प्रभावसे प्रकट हुई है। उसी समय जय जय आदि शब्दों से जिनके मुख वाचालित हो रहे थे तथा जो अपने मुकुट-मणियोंकी किरण-पक्ति से उसके चरण-कमलों के आरती उतार रहे थे ऐसे देवों ने आकर बड़े विनयके साथ मङ्गल स्नान, जिनेन्द्र देवकी पूजा आदि जो-जो कार्य बतलाये थे सब उसने नियोगके अनुसार पूर्ण किये । तत्पश्चात् जीवन्धर स्वामीकी पूजामें तत्पर होता हुआ वह परिवार के साथ उनके समीप गया। __ वहाँ जाकर उसने यह कहते हुए उनकी स्तुति की कि हे आर्य ! मेरी ऐसी विभूति आपके मन्त्रसे ही उत्पन्न हुई है। स्तुतिके बाद इसने उनकी पूजा की और बड़े हर्षसे उन्हें दिव्य आभूपण दिये ॥१५॥ उस यक्षने कहा कि हे महाशय ! आप मुझे दुःख और सुखके समय याद रखिए तथा कृत-कृत्य कीजिए । इतना कहकर वह अन्तर्हित हो गया ।।१६।। तदनन्तर जब ललाटको तपानेवाला सूर्यका बिम्ब आकाशरूपी वनके मध्यमें एकत्रित दावानलके समान हो गया, नमेरु वृक्षकी छाया बाल-बच्चों वाले मृगोंके झुण्डके साथ मल तलमें आ गई, सरोवरोंके राजहंस कमल छोड़कर पत्तोंको छायामें चले गये, बावड़ियोंका जल मछलियोंकी उछालसे सूर्यके संतापके कारण ही मानो खौलने लगा, मयूर नृत्य-कीड़ाके बिना ही पिच्छोंके समूहका छत्ता बनाकर मयूरियोंकी सेवा करने लगे और भौंरे हाथियोंके गण्डस्थल छोड़कर उनके कानोंके पास चले गये तब पुष्प तोड़ते-तोड़ते थकी हुई स्त्रियोंके साथ जलक्रीड़ाके इच्छुक पुरुष लपककर धीरे-धीरे नूतन नदीकी ओर आये। यह नूतन नदी पक्षियोंके शब्दों द्वारा शीघ्र ही कमललोचना स्त्रियोंका कुशल समाचार पूछकर फेनरूपी मनोहर हास्य प्रकट करती हुई चञ्चल तरङ्गरूपी हाथोंके द्वारा उन्हें पादोदकपैर धोनेके जलका संकेत कर रही थी ॥१७॥ उस समय नगरकी तरुण स्त्रियाँ भी दूसरी नदियोंके समान जान पड़ती थीं क्योंकि जिस प्रकार नदियोंमें चक्रवाकपक्षियोंके युगल रहते हैं उसी प्रकार उनमें भी यौवनरूपी सूर्यके प्रकाशसे जिनका आमोद बढ़ रहा था ऐसे स्तनरूप चक्रवाक पक्षियोंके युगल विद्यमान थे। जिस प्रकार नदियाँ तरङ्गोंसे चञ्चल रहती हैं उसी प्रकार वे भी कान्तिरूपी तरङ्गोंसे अतिशय चपल दिखती थीं और नदियोंमें जिस प्रकार कलहंस शब्द करते रहते हैं उसी प्रकार उनमें भी पैजनारूपी कलहंस पक्षी मनोहर शब्द कर रहे थे । इस तरह नदियोंकी समानता रखनेवाली स्त्रियाँ पतियोंके साथ नदीमें प्रवेशकर जलक्रीड़ा करने लगीं। उस समय पानीपर जिसकी कुञ्चित दृष्टि पड़ रही थी और जो देखनेके लिए आये हुए चन्द्रबिम्बके समान जान पड़ता था ऐसे अपनी प्रियाके मुखको सोनेकी पिचकारीसे निकलते हुए जलसे कोई बार-बार सींच रहा था ।।१८।।
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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