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जीवन्धर चस्पूकाव्य
कमलोंसे झरते हुए मकरन्दसे प्रमुदित भ्रमरोंकी पङ्क्ति जिस प्रकार गोखुरूके वनमें ले जाने योग्य नहीं है और सज्जनोंके समूहके द्वारा सीखी हुई विद्या जिस प्रकार मिथ्या दृष्टि लोगोंके पास ले जानेके योग्य नहीं है उसी प्रकार आपकी भुजारूपी अर्गलासे लालित पृथिवीरूपी स्त्री अन्य भुजाओंपर आरोपण करनेके योग्य नहीं है । यह राजधर्म आपको अवश्य ही याद रखना चाहिए कि राजाओंको अपने हृदयका भी सर्वथा विश्वास नहीं करना चाहिए फिर दूसरे लोगोंकी तो वात ही क्या है ? हाँ, इतना अवश्य करना चाहिए कि जिससे सब लोग राजाको चन्द्रमा और और सूर्यके समान अपना तथा विश्वास करने योग्य समझते रहें।
हे राजन् ! यह बात नीतिशास्त्रमें प्रसिद्ध है कि धर्म और अर्थ ये दोनों ही पुरुषार्थ काम पुरुषार्थके मूल हैं । जब मूल हो नष्ट हो जावेगा तव कामकी कथा कहाँ रहेगी ? मयूरके नष्ट हो जानेपर भी क्या केका वाणी रहती है ? हे जन् ! उर्वशी नामक अप्सरामें अनुराग करनेसे ब्रह्मा क्षणभरमें पतित हो गये थे, पार्वतीके स्नेहसे महादेवने अपना आधा शरीर स्त्रीरूप कर लिया था, स्त्रियोंमें चपल चित्त होनेसे विष्णु भी निन्दाके स्थान बने और बुद्धकी भी यही दशा रही। हे पृथिवीपते ! आप यह सब अच्छी तरह जानते हैं ॥३४॥ इस प्रकार मन्त्रियोंने नीतिसे भरी वाणी कही परन्तु जिस प्रकार सछिद्र घटमें दूध नहीं ठहर सकता है उसी प्रकार वह राजाके कामसे जर्जेरित चित्तमें ठहर नहीं सकी ।।३५॥
तदनन्तर कामदेवके वाणोंका निशाना होनेसे जिसकी चेतना मोहसे आक्रान्त हो चुकी थी ऐसे राजा सत्यन्धरने जिसका दुराचार समस्त दिशाओं में प्रसिद्ध था ऐसे काष्ठाङ्गारको बुलाकर तथा एकान्त स्थानमें ले जाकर इस प्रकार कहा
चूँकि हम निरन्तर काम-साम्राज्यका पालन कर रहे हैं इसलिए आप सावधान होकर इस राज्यका पालन कीजिये ॥३६।। इस प्रकार राजाके वचन सुनकर काष्टाङ्गारने सन्तोषके साथ उत्तर दिया कि हे राजन् ! जिस प्रकार गजराजके द्वारा उठाया हुआ बहुत भारी भार बैल नहीं उठा सकता है उसी प्रकार आपके द्वारा उठाया हुआ भार धारण करनेके लिए मैं समर्थ नहीं हूँ ॥३७॥ जिस प्रकार गधा घोड़ाकी शोभा नहीं धारण कर सकता, मुर्गा गरुड़की चाल नहीं चल सकता और चिड़वा कलहंसके मार्ग पर नहीं चल सकता उसी प्रकार मैं भी आपके मार्ग पर नहीं चल सकता ॥३८॥
जिसका चित्त कौतुकसे भर रहा है ऐसे काष्टाङ्गारको पूर्वोक्त प्रकार से विनय सहित बोलता देखकर राजाने रोक दिया कि अब आपको इस विषयमें एक शब्द भी नहीं बोलना चाहिये । तदनन्तर 'मैं धन्य हूँ' इस प्रकार कहकर अपना आदेश शिरपर धारण करनेवाले काष्ठाङ्गारको राजाने राज्यका भार धारण करनेमें नियुक्त किया और प्रतिदिन बढ़ती हुई राग रूपी लताके लिए जिसका हृदय आलवालके समान जान पड़ता था ऐसे पञ्चेन्द्रियोंके विषयमुखसे पराङ्मुख रहने वाले राजा सत्यन्धरने कुछ दिन बिताये।
अथानन्तर किसी समय जब रात्रि समाप्त होनेको आई तब चन्द्रमा पश्चिम दिशाकी ओर ढल गया। वह चन्द्रमा ऐसा जान पड़ता था मानो पश्चिम दिशा रूपी स्त्रीकी काजलसे सुशोभित चाँदीकी डिबिया ही हो, अथवा सूर्य कहीं देख न ले इस भयके कारण शीघ्रतासे भागती हुई रात्रि रूपी पुंश्चली स्त्रीका गिरा हुआ मानो कर्णाभरण ही हो। अथवा आकाश रूपी हाथीके गण्डस्थलसे निकले हुए मोतियोंके रखनेका मानो पात्र ही हो। अथवा पश्चिम समुद्रसे जल भरनेके लिए रात्रि रूपी स्त्रीके द्वारा अपने हाथमें लिया हुआ मानो स्फटिकका घड़ा ही हो । अथवा पश्चिम दिशा सम्बन्धी दिग्गजके शुण्डादण्डसे गिरा हुआ मानो कीचड़ सहित मृणाल ही हो । अथवा कामदेवके वाणोंको तीक्ष्ण करने वाला मानो शाणका पाषाग ही हो । अथवा पश्चिम दिशा रूपी स्त्रोंकी मानो फूलोंसे बनी हुई गेंद ही हो, अथवा अस्ताचल रूपी हाथीके