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________________ प्रथम लम्भ उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो जन्मसे ही लेकर जल सींचना आदि उपकारोंके द्वारा अपना भरण-पोषण करने वाले मेघोंके लिए फल फूल आदिकी भेंट समर्पण करनेके लिए ही वहाँ तक जा पहुँचे हों । वह देश उन अनेक नदियोंमें भी घिरा हुआ है जो ठीक युवती वियोंके समान जान पड़ती हैं क्योंकि जिस प्रकार युवती स्त्रियाँ नेत्रोंसे सहित होती हैं उसी प्रकार वे नदियाँ भी विकसित नील कमल रूपी नेत्रोंसे सहित हैं, जिसप्रकार युवती स्त्रियाँ मुखोंसे समुद्भासित होती हैं उसीप्रकार वे नदियाँ भी कमलांसे समुद्रासित है । जिसप्रकार युवती स्त्रियाँ काले काले केशोंसे सहित होती हैं उसी प्रकार वे नदियाँ भी काले-काले भ्रमरोंसे सहित हैं, जिसप्रकार युवती स्त्रियाँ प्रसन्न कामदेवकी मकरीसे सुशोभित सुन्दर चक्रवाक पक्षीके आकार वाले गोल-पयोधरों-स्तनोंको धारण करती हैं उसीप्रकार वे नदियाँ भी ऐसे पय अर्थात् जलको धारण करती हैं जो कि अठखेलियाँ करनेवाली मछलियोंसे चिह्नित हैं, मगरमच्छोंसे सुशोभित और अतिशय शोभायमान चक्रवाक पक्षियोंसे सहित हैं। उस हेमाङ्गद देशमें राजपुरी नामकी जगत् प्रसिद्ध नगरी है। उस नगरीके कोटमें लगे हुए नील मणियोंकी किरणें सूर्यका मार्ग रोक लेती हैं जिससे सूर्य यह समझकर विवश हो जाता है कि मुझे राहुने घेर लिया है और इस भ्रान्तिके कारण ही वह हजार चरणों (पक्षमें किरणों) से सहित होने पर भी वहाँके कोटको नहीं लाँघ सकता है ।।१३।। वह नगरी अपने मेघस्पर्शी महलोंकी ध्वजाओंके बस्त्रोंसे सूर्यके घोड़ोंकी थकान दूर करती रहती है तथा विजलीके समान चमकीली शरीरलताकी धारक स्त्रियोंसे सुशोभित रहती है। उसके मणिमय महलोंकी फैली हुई कान्तिकी परम्परासे स्वर्गलोकमें चदोवा-सा तन जाता है और नील पत्थरके कोटसे निकलती हुई कान्ति वहाँ हरे-भरे वन्दनमालाके समान जान पड़ती है ॥१४॥ उस नगरीके हरेभरे मणियोंसे बने हुए मकानोंकी कान्तिसे व्याप्त होकर जव मेघोंके समूह हरे-भरे दिखने लगते हैं तब सूर्यके रथके घोड़े उन मेघोंको दूवा और पानी समझकर उनकी ओर झपटते हैं और चूंकि सूर्य घोड़ोंकी इस प्रवृत्तिको सहने में असमर्थ हैं इसलिए ही क्या उसने उत्तरायण और दक्षिणायणके भेदसे अपने दो मार्ग बना लिये हैं ॥१५॥ उस नगरीकी सुन्दरी स्त्रियोंके मुखरूपी चन्द्रमासे पिघले हुए चन्द्रकान्तमणि निर्मित महलोंसे जो पानी झरता है उसे पीनेकी इच्छासे चन्द्रमाका मृग बड़े वेगसे आया परन्तु ज्योंही उसने महलोंकी शिखरपर बने हुए सिंह देखे त्योंही भयभीत हो बड़े वेगसे बाहर निकल गया ।।१६।। उस नगरीके अतिशय श्रेष्ठ राजमहलोंकी देहलियोंमें जो गारुत्मन मणि लगे हुए हैं उनसे मृगोंके समूह पहले कई बार छकाये जा चुके हैं इसलिए अब वे कोमल तृणोंको देखकर छूते भी नहीं हैं परन्तु जब वे ही तृण स्त्रियोंकी मन्द मुसकानसे सफ़ेद हो जाते हैं तब चर लेते हैं ।।१७। उस नगरीके ऊँचे-ऊँचे महलोंकी छतोपर बैठनेवाली स्त्रियोंके नेत्ररूपी नील कमलोंकी काली कान्ति ऐसी जान पड़ती है मानो अपनी सखी गङ्गानदीको देखनेके लिए यमुना ही बड़ी शीव्रतासे स्वर्गकी ओर बढ़ी जा रही हो ॥१८॥ उस नगरीके मकानोंकी छतोंपर देवाङ्गनाओंके प्रतिविम्ब पड़ रहे थे और वहीं पर तरुणजनोंकी निजकी स्त्रियाँ बैठी हुई थीं। यद्यपि दोनोंका रूप-रङ्ग एक-सा था तो भी तरुणजन नेत्रोंकी टिपकारकी कुशलतासे उन दोनोंको अलग-अलग जान लेते हैं । इसी प्रकार वहाँ के नील-मणियोंसे बने महलोंके अग्रभागमें स्थित किन्हीं सुन्दरियोंके मुखचन्द्रको तथा पास हीमें विचरनेवाले चन्द्रमाके विम्बको देखकर राहु आकाशाङ्गणमें संशयको प्राप्त हुआ था ।।११।। उस नगरीके बड़ेबड़े महलोंको देखकर ही मानो देवेन्द्र, शीघ्र ही टिमकार रहित हो गया है, कमलोंसे सुशोभित परिखाको देखकर ही मानो गङ्गानदी विषाद-खेद ( पक्षमें शिव) को प्राप्त हुई है, वहाँके जिनमन्दिरोंको देखता हुआ सुमेरु पर्वत अपने दयनीय शब्द धारण कर रहा है (पक्ष में) सुवर्णमय सुन्दर शरीर धारण करता है और देवोंकी नगरी अमरावती भी उस नगरीको देखकर तथा
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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