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________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र. १ द्विप्रत्यवतारप्रतिप्रतिनिरूपणम् ४९ पृथिवीकायिकाच, यादरपृथ्वीकायिकाश्च, अथ के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिका सूक्ष्मपृथ्वीकायिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकाश्च अपर्याप्तकाश्च ॥ सू० ८ ॥ टीका- 'तत्थ णं' तत्र खल-तत्र-तेषु नवसु प्रतिपत्तिषु मध्ये 'जे एवमाहंस-दुविहा संसारसमापन्नगा जीवा पन्नत्ता' ये द्विप्रत्यवतारविवक्षायां विद्यमानाः एवमाख्यातवन्तः द्विविधाः संसारसमापन्नका जीवाः प्रज्ञप्ता इति, 'ते एकमाईसु' ते एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण द्विविधत्व भावनार्थम् आख्यातवन्तः, किमाख्यातवन्तस्तत्राह-'तं जहा' इत्यादि 'तं जहा' तद्यथा-'तसाचेव थावरा चेव' त्रसाश्चैव स्थावराश्चैव तत्र सन्ति-निदाघादि संतप्ता; स्वस्थानात् स्थानान्तरं छायादि सेवनार्थ गच्छन्तीति वसा सचरिष्णवो जीवाः, अनया व्युत्पत्त्या त्रसाः त्रसनामकर्मोदयवर्तिनो जीवाः परिगृहीताः भवन्ति । अथवा त्रसन्ति-ऊर्ध्वमस्तिर्यग् चलन्तीति त्रसाः-तेजो अव सूत्रकार उन्हीं आचार्यों की जीव सम्बन्धी दो आदि मान्यताओं में से प्रथम जो द्विप्रत्यवतार सम्बन्धी प्रतिपत्ति है उसे प्रकट करने के लिये सूत्र कहते है"तत्थ णं जे एवमाहंसु दुविहा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता-इत्यादि । सू० ८॥ टीकार्थ-'तत्थ गं' उन नौ प्रतिपत्तियो के बीच में 'जे एचमाइंस' जो आचार्य ऐसा कहते है कि संसारसमापन्नकजीव दो प्रकार के हैं-'ते एवमाइंसु' वे इस दृष्टि को सामने रख कर वहाँ द्विविधता का कथन करते है-'तसाचेव थावराचेव' वह दृष्टि है त्रसजीव और स्थावरजीव सम्बन्धी अर्थात् त्रसजीव और स्थावरजीव के भेद से संसारसमापन्नकजीव दो प्रकार के है-जो अपनी इच्छा से चलते फिरते हैं। गर्मी आदि से सन्तप्त होकर एक स्थान से छाया आदि के सेवन करने के लिये दूसरे स्थान पर जाते हैं वे त्रसजीव हैं । इस प्रकार त्रसनामकर्म के उदयवाले जीव त्रसजीव कहे गये है। अथवा ऊँचे नीचे और तिरछे जो चलते है वे त्रसजीव है । इस प्रकार के कथन से तेज वायु और द्वोन्द्रियादिकजीव सब त्रसजीव તે આચાર્યોની જીવના પ્રકારોને વિષે-બેથી લઈને દસ સુધીના પ્રકાર હવા વિષે-જે માન્યતાઓ છે તેમાંથી જે દ્વિપ્રત્યવતાર સંબંધી પ્રતિપત્તિ છે (બે પ્રકાર હોવાની માન્યતા છે) તેનું સૂત્રકાર હવે પ્રતિપાદન કરે છે– "तत्थ णं जे एवमासु दुविहा संसारसमापन्नगा जीवा पण्णत्ता"-सू० ८ .टी-'तत्थ णं" नव प्रतिपत्तिमा (भान्यता) भांनी, "जे एवमाहसु" ॥४ मायायानी सवारे मान्यता छ । ससारसमापन्न वाना में प्रा२ छे, "ते एवमासु" तेसो मा प्रा२नी मान्यतान सीधे लाना में प्रा। ४ छ---"तसा चेव थावरा चेव" તેમની દષ્ટિએ સંસારસમાપનક જીવોના આ બે ભેદ પડે છે–(૧) ત્રસ અને (૨) સ્થાવર. - જે જીવે પોતાની ઈચ્છાનુસાર હલનચલન કરી શકે છે-ગરમી આદિથી ત્રાસીને છાયા એ દિનુ સેવન કરવા માટે બીજે સ્થળે જઈ શકે છે, તેમને ત્રસ જીવે કહે છે. આ રીતે વસે નામકર્મના ઉદયવાળા જીને ત્રસજી કહેવાય છે. અથવા–જે જીવે ઊંચે, નીચે અને
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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