SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 519
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेय द्योतिका टीका प्र० २ पुरुषाणामन्तरकालनिरूपणम् ४९५ , 1 यावत्सहस्रारः यावत्पदेन दशविधिभवनवासिदेव पुरुषानन्तं रमष्ट विधवानव्यन्तरपञ्चविध ज्योतिषिक- वैमानिककल्पोंपपन्न सौधर्मे - १ शान - २ " सनत्कुमार - ३ माहेन्द्र - ४ ब्रह्मटोक - ५ लान्तक- ६ महाशुक्रदेवपुरुषाणां - ७ ग्रहणं भवतीति भवनवासिदेवपुरुषादारम्य सहस्रबारदेवपुरुषपर्यन्तानामन्तरं सामान्यदेवपुरुषाणामिव ज्ञातव्यम् । T 171 / तदेवाह - 'जहन्नेणं अंतो मुहुतं' जघन्येनान्तमुहूर्तमन्तरम् 'उक्को सेणं वणस्सकाळी, उत्कर्षेण वनस्पतिकालपर्यन्त मन्तरं भवति," 'आणयदेवपुरिसाणं भंते' मनतदेव पुरुषाणां भदन्त ! 'केवइयं कालं अंतरं होई' कियन्तं कालमन्तरं भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा" इत्यादि " गोयमा' हे गौतम! ' ' जहन्नेणं वासपुहुत्तं' भवनवासी देव पुरुषो के बाद आठ प्रकार के वानव्यन्तर पांच प्रकार के ज्योतिषी वैमानिक - कल्पोषपन्न जो सौधर्म १ ईशान २, सनत्कुमार ३, माहेन्द्र ४, ब्रह्मलोक ५, लान्तक ६, महाशुक्र ७, देवपुरुषों से लेकर सहस्रार आठवें देवलोक तक के देवपुरुषों का अन्तर सामान्य देवपुरुषों के समान जान लेना चाहिये यही बात सूत्रकार प्रकट करते है - "जद्दन्नेणं अतो मुहुत्तं" यहां जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का अन्तर पड़ता है और "उक्को सेणं वणस्सइकालो" उत्कृष्ट से अन्तर वनस्पति काल प्रमाण - अनन्त काल का पड़ता है । इस प्रकार असुरकुमार से लेकर सहबार कल्प तक के देवपुरुषों का अन्तर कह कर अब नववें आनतादि देवपुरुषों ५ का अन्तर कहते हैं -- " आणय देवपुरिसाणं भंते" इत्यादि । "आणय देवपुरिसाणं भंते ! केवइयं काळं अंतर होइ" हे भदन्त ! आनत देव पुरुषों का आनत देवपुरुषत्व से छूट जाने पर पुनः उसकी प्राप्ति करने में कितने काल का अन्तर होता है, इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं--" गोयमा " हे गौतम! यहां अन्तर 1 સુધીના દેવપુરુષોનું ગ્રહણ અહિંયા યાવપદથી થયેલ છે યાવપદથી દશ પ્રકારના ભવનવાસિ દેવપુરૂષો પછી આઠ પ્રકારના વાનન્યન્તર પાંચ પ્રકારના જ્યાતિષ્ઠ વૈમાનિક-કલ્પે પપન્નક કે જે सौधर्भ १, ईशान २, सनत्कुमार उ, भाडेन्द्र ४, ब्रह्मो, सान्त४६, महाशु ७, भारसा દેવ પુરુષો ગ્રહણ કરાયા છે. અર્થાત્ ભવનપતિ દેવ પુરુષાથી લઈને સહસ્રાર આઠમા દેવલેાક સુધીના દેવ પુરૂષનુ અંતર સામાન્ય દેવ પુરુષાની જેમ સમજી લેવુ' એજ વાત સૂત્રકાર પ્રકટ ५३ छे--“जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं” मडियां न्धन्यथी ! भुहूर्त अ ंतर पडे छे. “उक्कोसेणं वणस्सकालो" उत्सृष्टथी वनस्पतिअंत प्रभाष भेट - अनंता तर पडे छे. આ પ્રમાણે અસુરકુમારથી લઇને સહુસાર કલ્પ સુધીના દેવપુરૂષોનું અંતર કહીને हवे नवभा मानताहि देवपुरषोनु मंतर सूत्रभर मतावे हे "आणय देवपुरिसाणं भंते " छत्याहि. "आणदेयपुराणं भंते ! केवइयं कालं अंतर होइ" हे भगवन् मानत हेव पुरुषोनु આનત દેવપુરૂષપણાથી છૂટયા પછી ફરીથી તેની પ્રાપ્તિ કરવામાં ક્રેટલા કાળનું અંતર ડાય छे ? या अश्नना उत्तरभां अलु गौतम स्वाभीने उडे - "गोयमा !" हे गौतम ।
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy