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________________ ૪૪૬ जीवाभिगमसूत्रे णाओ' भरतैरवतवर्षकर्मभूमिकमनुष्य स्त्रियो द्वय्योऽपि तुल्याः संख्येयगुणाः, हैमवतैरण्यवत वर्षाकर्मभूमिकमनुष्य स्त्र्यपेक्षया भरतैरवतवर्पकर्मभूमिकमनुष्य स्त्रियः संख्येयगुणा अधिका भवन्ति, कर्मभूमिकतया स्वभावत एव तत्र प्राचुर्येण संभवात्, स्वस्थाने तु द्वय्योऽपि परस्परं तुल्या भवन्तीति भाव | 'पुण्य विदेह अवर विदेह कम्मभूमिगमणुस्सित्थीओ दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ' भरतैरवत मनुष्य स्त्रीभ्यः पूर्वविदेहा पर विदेह कर्म भूमिकमनुप्यस्त्रियः सख्येयगुणा अधिका भवन्ति क्षेत्रबाहुल्याद जितस्वामिकाल इव स्वभावत एव तत्र प्राचुर्येण भावात् स्वस्थाने तु द्वयीनामपि परस्परं तुल्यतेति तृतीयमल्पबहुत्वमिति || ३ | अथ चतुर्थमल्पबहुत्वमाह — 'एयासि णं' इत्यादि, 'एयासि णं भंते' एतासा खलु भदन्त देवितथी भवणवासिणोणं वाणमंतरीणं' देवस्त्रीणां भवनवासिनीनां वानव्यन्तरीणाम् ' जोइसि - णीण वेमाणिणीण य' ज्योतिष्कीनां वैमानिकीनां च ' कयरा कयराहिंतो अप्पा वा, बहुया वा, संखेज्जगुणाओ” भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र ये कर्मभूमि के क्षेत्र हैं अतः यहांकी मनुष्य स्त्रिया हैमवत एवं ऐरण्यवत क्षेत्र की अपेक्षा संख्यात गुणित अधिक हैं परन्तु फिर भी ये परस्पर में तुल्य हैं । $5 कर्म भूमिके क्षेत्र होने से यहा स्वाभाविक रूप से स्त्रियों की अधिक उत्पत्ति होती है । पुण्वविदेह अवरविदेह कम्म भूमिगमणुस्लित्थीओ दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह इन दो कर्म भूमि के क्षेत्रों की मनुष्य स्त्रियां परस्पर में समान हैं परन्तु फिर भी भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र को मनुष्य स्त्रियों की अपेक्षा ये संख्यात गुणो अधिक हैं । क्योंकि क्षेत्र की बहुलता है । अतः अजित स्वामी के काल के जैसा स्वभावतः इन की यहां प्रचुरता है | चतुर्थ प्रकार का अल्प बहुत्व इस प्रकार से हैं - " एयासि णं भंते । देवित्थीण भवण वासिणीण वाणमंतरीण जोइसिणीणं वैमाणिणीण य" हे भदन्त । इन भवनवासिनी वान व्यन्तर આ કભૂમિના ક્ષેત્રો છે તેથી અહિની મનુષ્ય ત્રિયેા હૈમવત અને અરણ્યવત ક્ષેત્રોની અપેક્ષાથી સખ્યાત ગણી વધારે છે પરતુ પરસ્પમાં તેએ સરખી છે કમ ભૂમિનુ क्षेत्र होवाथी महियां स्वाभावि पाथी स्त्रियोनी उत्पत्ति वधारे होय छे “पुव्वविदेह अवर विदेहकम्मभूमिगमणुस्सित्थी दो वि तुल्लाभो संखेज्जगुणाभो” पूर्वविदेह अने પશ્ચિમવિદેહ આ એ ક ભૂમિના ક્ષેત્રોની મનુષ્ય ચે પરસ્પરમા સરખી છે પરંતુ ભરતક્ષેત્ર અને અરવત ક્ષેત્રની મનુષ્ય સ્રર્યાની અપેક્ષાથી તે સખ્યાત ગણી વધારે છે. કેમ કે—ક્ષેત્રનુ... વિશાળ ણુ છે તેથી અછત સ્વામીના કાળની જેમ સ્વભાવ થી જ તેમનુ' અહિયા વિશેષ પણું છે. આ ત્રીજા પ્રકારનુ' અલ્પ બહુ પડ્યુ છે थोथा प्ररितु नमस्य महु या प्रभाष छे - "पयासि णं भंते ! देवित्थी णं भवणवासिणीणं वाणमंतराणं जोइसिणीण वेमाणिणो य" हे भगवन् या लवनवासी हेवनी देवियो,
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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