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जीवामिगमती मानमिति, ‘एवं जाव अंतरदीवियाओ' ए वम् सामान्यतो यथा अकर्मभूमिकस्त्रियाः स्त्रीत्यस्यान्तरकालः कथितः स्तथैव-तेनैव रूपेण यावदन्तरद्वीपिकाः स्त्रिय इति, अत्र यावत्पदेन-हेमवतैरण्यवत-हरिवर्षरम्यकवर्ष-देवकुरूत्तरकुरुस्त्रीणां ग्रहणं भवति, तेन हेमवतक्षेत्रजमनुष्यस्त्रीतआरभ्यान्तरद्वीपजमनुष्यस्त्रीणां ग्रहणं भवति । ततः पूर्वोक्तहैमवतादिक्षत्रस्त्रियाः स्त्रोत्वस्यान्तरकालमान जन्मापेक्षया जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकदशवर्षसहस्राणि उत्कर्पतो वनस्पति काल: संहरणापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण वनस्पतिका छ एवेति ।
सम्प्रति-देवस्त्रीणामन्तरप्रतिपादनार्थमाह-'देविस्थीणं' इत्यादि, देवित्थीणं सवासि जहन्नेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' देवस्त्रीणां सर्वासां जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कतक वनस्पति आदिकों में परिभ्रमण करके फिर वहां से किसी द्वारा संहत होजावे अकर्मभूमिमें स्त्री के पर्याय से उत्पन्न हुई वह इस प्रकार से वह पुनः अकर्म भूमिक मनुष्य स्त्री होने में बनस्पति काल के प्रमाण काल से अन्तर वाली होती है । "एवं जाव अंतर दीवियाओ" निस प्रकार से सामान्य अकर्म भूमिक स्त्री का पुनः वहीं पर स्त्री रूप से होने का अन्तर काल कहा गया है उसी प्रकार से यावत्पद से गृहीत हैमवत मनुष्य स्त्रीका हैरण्यवत मनुध्यत्री का हरिवर्ष मनुष्यत्री का रम्यक वर्ष मनुष्य स्त्री का देवकुरुमनुष्यस्त्री का और उत्तर कुरुमनुष्यत्री का तथा अन्तर द्वीप की मनुष्यस्त्रो का पुनः वहीं पर मनुष्यस्त्री होने का अन्तर काल जन्मकी
अपेक्षा लेकर जघन्य से एक अन्तर्मुहर्त अधिक दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल प्रमाण काल का है ऐसा जानना चाहिये तथा संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तरकाल एक अन्तरर्मुइर्त का है और उत्कृष्ट काल वनस्पति काल प्रमाण अनन्त काल का है।
अब सूत्रकार देवस्त्रियों के अन्तर काल का प्रतिपादन करते है-इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'देवित्थीण भते ! केवइयं कालं अंतरं होइ" हे भदन्त । देवस्त्रियों का દ્વારા સહિત થઈ જાય તે અકર્મભૂમિની મનુષ્ય સ્ત્રી થવામાં વનસ્પતિ કાલના प्रभाए थी मत२ वाजी खाय छ ‘एवं जाच अंतरदीवियामओ, २ प्रभारे सामान्य અકર્મભૂમિની સ્ત્રીનુ ફરી થી ત્યાંની જ સ્ત્રી થવાનેઅંતરકાળ કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે ચાવ૫દથી ગ્રહણકરાયેલ હૈિમવત મનુષ્ય સ્ત્રી ને હિરણ્યવત મનુષ્યસ્ત્રીને હરિવર્ષ મનુષ્યસ્ત્રીને રમ્યક વર્ષની મનુષ્ય સ્ત્રીને દેવકુરૂની મનુષ્યસ્ત્રીને અને ઉત્તરકુરૂની મનુષ્ય સ્ત્રીને તથા અતરદીપની મનુષ્ય સ્ત્રીને ફરીથી ત્યા જ મનુષ્ય સ્ત્રી થવાને અંતરકાલ જન્મની અપેક્ષાથી જઘન્યથી એક આ તમુહૂત અધિક દસ હજાર વર્ષ અને ઉત્કૃષ્ટથી વનસ્પતિકાલ પ્રમાણ કાલને છે તેમ સમજવું તથા સંહરણની અપેક્ષાથી જઘન્ય અંતરકાલ એક અંતર્મુહૂર્તને છે અને ઉત્કૃષ્ણકાલ વનસ્પતિકાલ પ્રમાણ અંતરાલનું છે * હવે સૂત્રકાર દેવિયેના અંતરકાલનું પ્રતિપાદન કરે છે આમાં ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુને मेषु ५७यु छ - "देवित्थीण भंते ! केवइयं कालं अंतरं होई"सगवन् वियाना
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