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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्रति० २ इस्त्रोणां स्त्रीत्वेनावस्थानकालनिरूपणम् ४१५ पूर्वकोटिपर्यन्तम् । जलचरस्त्रियाः जलचरस्त्रीत्वेन निरन्तरं भवन्त्याः जघन्यतोऽवस्थानमन्तर्मुहूर्तमात्र मुत्कर्षतस्तु पूर्व कोटिपृथक्त्वम्, यतः पूर्वकोट्यायुष्कान् सप्तभवाननुभूयानन्तरं जलचरस्त्रीणामवश्यं जलचरस्त्रीत्वतश्च्युतिर्भवतीति भावः । 'चउप्पदथलयर तिरिक्खजोणित्थीए जहा ओहियाए तिरिक्खजोणित्थीए' चतुष्पदस्थलचरस्त्रियाः यथा औषिक्या स्तिर्यक् स्त्रिया व्यवस्थानं कथितम् तथैव ज्ञातव्यम् तथाहि - जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तं तदनन्तरं स्थलचर स्त्रीभावस्य परित्यागसंभवात् । उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि इति ॥ ' उरगपरिसप्पि भुयपरिसपित्थीणं जहा जलयरीणं' उरः परिसर्पिभुज्ञपरिसर्पिस्त्रीणां यथा जलचरखीणामवस्थानं कथितं तथैव ज्ञातव्यम् जघन्यतः स्त्रीरूपेणान्तर्मुहूर्तमवस्थानम्, उत्कर्षतः पूर्वकोटि # तिर्यक् स्त्रियां हैं उनको भवस्थिति का काल जघन्य से तो एक अन्तमुर्हत का है और उत्कृष्ट से पूर्वकोटि पृथक्त्व है - दो पूर्वकोटि से लेकर नौ पूर्वकोटि तक का है - तात्पर्य यह है कि जलचर स्त्रियां यदि निरन्तररूप से जलचर स्त्रियों के रूपसे होती है तो वे कम से कम अन्तर्मुहूर्त्त तक होती हैं और उत्कृष्ट से पूर्वकोटि पृथक्व तक होती हैं पूर्वकोटि आयुवाले सात भवों के बाद वे जलचर स्त्रियों के भव से अवश्य ही छूट जाती हैं । " चउप्पद थलयरतिक्खिजोणित्थीए जहा ओहियाए तिरिक्खजोणित्थीए,, चतुष्पद स्थलचर स्त्री का भवस्थिति का प्रमाण जैसा औधिक तिर्यक् स्त्री की भवस्थिति का प्रमाण कहा गया है वैसा ही जानना चाहिये जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का होता है क्योंकि उसके बाद उसका स्थलचर स्त्रीभव छूट जाता है । और उत्कृष्ठ से पूर्वकोटि पृथक्त्व तीन पल्योपम का है । " उरगपरिसप्पिभूयपरिसप्पित्थीणं जहा जलयरीणं" उरःपरिसर्पिस्त्रियो का और भुजपरिसर्पिस्त्रियों का अवस्थान- भवस्थिति का प्रमाण- जलचर स्त्रियों के जैसा 1 તિય ગક્રિયા છે, તેની ભસ્થિતિને કાળ જઘન્યથી તેા એક અતર્મુહૂતના છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂકાર્ટ પૃથત્વ છે એટલે કે એ પૂર્વ કેાટિથી લઈને નવ પૂર્વ કાટિ સુધીનો છે. તાત્પય એ છે કે—જલચરસ્ત્રિયા એછામાં ઓછા એક અંતર્મુહૂત સુધી હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂર્વ કાર્ટિ પૃથ ત્ય સુધી હોય છે. પૂર્વ કોટિ આયુષ્યવાળા સાતભવાની પછી તે सयर स्त्रियांना लवथी अवश्यन छूटि लय छे. "च उप्पदधलयर तिरिक्खजोणित्थीप नहा ओहियाए तिरिषखजोणित्थीप" यतुष्पहस्थसयर स्त्रीभनी लवस्थितिनु प्रमाणु ने प्रभा ઔધિક તિય ગુસ્રીની ભવસ્થિતિનું પ્રમાણ કહેવામાં આવ્યુ છે, એજ પ્રમાણે સમજવું એટલે કે-જન્યથી એક મંતર્મુહૂત હોય છે કેમકે—તે પછી તેના સ્થલચર સ્ક્રીભવ छूटि लय छे भने उत्सृष्टपाथी पूर्व अटि पृथत्व ऋतु पयोभने छे. “उरगपरिसप्पिभुयुपरिसपित्थीणं जहा जलयरीणं" ७२ परिसर्पानी स्त्रियोनो ने लुग परिसर्पनी શ્રિયાનુ ભવસ્થિતિનું પ્રમાણ જલચરની અિચેાની જેમ સમજવું, જેમકે-જઘન્યથી એફ
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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