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[ जिनवरस्य नयचक्रम् (२)"प्रात्मा हि शुद्धनिश्चयेन सत्ताचतन्यबोधाविशुद्धप्रारणजीर्वति।'
शुद्धनिश्चयनय से जीव सत्ता, चैतन्य व ज्ञानादि शुद्धप्राणों से जीता है।" (ख) निरुपाधिक गुण-गुणी को अभेदरूप विषय करनेवाला शुद्धनिश्चयनय या साक्षात्शुद्धनिश्चयनय है । जैसे-जीव को शुद्ध केवलज्ञानादिरूप कहना। यह नय आत्मा को क्षायिकभावों से अभेद बताता है तथा उन्हीं का कर्ता-भोक्ता भी कहता है। इस विषय को स्पष्ट करनेवाले अनेक कथन उपलब्ध होते हैं। जैसे :
(१) "शुद्धनिश्चयेन केवलज्ञानादिशुद्धभावाः स्वभावा भण्यन्ते । शुद्धनिश्चयनय से केवलज्ञानादि शुद्धभाव जीव के स्वभाव कहे
जाते हैं जो
(२) "शुद्धनिश्चयनयेन निरूपाधिस्फटिकवत् समस्तरागादिविकल्पोपाधिरहितम् ।
शुद्धनिश्चयनय से निरुपाधि स्फटिकमणि के समान आत्मा समस्त रागादि विकल्प की उपाधि से रहित है।"
(३) "शुद्धनिश्चयनयात्पुनः शुद्धमखण्डं केवलज्ञानदर्शनद्वयं जीवलक्षणमिति ।
शुद्धनिश्चयनय से शुद्ध, प्रखंड केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों जीव के लक्षण हैं।" (ग) एकदेशशुद्धता से तन्मय द्रव्यसामान्य को पूर्णशुद्ध देखना एकदेशशुद्धनिश्चयनय है । जैसे :
(१) "तस्मिन् ध्याने स्थितानां यद्वीतरागपरमानन्दसुखं प्रतिभाति, तदेव निश्चयमोक्षमार्गस्वरूपम् ।......"तदेव शुद्धात्मस्वरूपं, तदेव परमात्मस्वरूपं तदेवैकदेशव्यक्तिरूपविक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनयेन स्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्न सुखामृतजलसरोवरे रागादिमलरहितत्वेन परमहंसस्वरूपम्। ' पंचास्तिकाय, गाथा २७ की जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति टीका २ 'तत्र निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयकः शुद्धनिश्चयो यथा - केवलज्ञानादयो जीव ___ इति' - पालापपद्धति, अन्तिम पृष्ठ । 3 पंचास्तिकाय, गाथा ६१ की जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति टीका ४ प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति टीका के परिशिष्ट ५ वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ६ की टीका