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[ जिनवरस्य नयचक्रम्
जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है और उसका यह अनेकान्त नयो की भाषा में ही व्यक्त हुआ है । अतः उसे समझने के लिये नयों का स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है ।
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यह भी तो अनेकान्त ही है कि निश्चयनय अभेद्य है, पर उसे भेदा जा रहा है; और निश्चयनय के भेद-प्रभेद बताये जा रहे हैं, फिर भी उसकी अभेद्यता कायम है ।
अब यहाँ निश्चयनय के भेद-प्रभेदों की विषयवस्तु के सम्बन्ध में विचार अपेक्षित है ।
वैसे तो सामान्य-विशेषात्मक प्रत्येक वस्तु का प्रश, चाहे वह चेतन हो या जड़, नय का विषय बन सकता है, किन्तु यहाँ अध्यात्म का प्रकरण है अर्थात् मुख्यतः अध्यात्म नयों की चर्चा चल रही है; अतः यहाँ श्रात्मवस्तु एवं उसके अंशों को ही अध्ययन का - विवेचन का विषय बनाया गया है । नयों के विषय को आत्मा पर घटित करने के कारण, यह नहीं समझ लेना चाहिए कि नयों का प्रयोग प्रात्मवस्तु पर ही होता है । अध्यात्म में आत्मा
जानना ही मूल प्रयोजन रहता है, अतः उसे प्रधान करके ही सम्पूर्ण कथन किया जाता है । 'अध्यात्म' शब्द का अर्थ ही आत्मा को जानना होता है | अधि + आत्म = अध्यात्म; अधि = जानना, आत्म = आत्मा को । आत्मा को जानना ही अध्यात्म है ।
आत्मा को जानने का अर्थ मात्र शब्दो से जान लेना मात्र नही है, अपितु आत्मानुभूति सम्पन्न होने से है । बृहद्रव्यसंग्रह में अध्यात्म का अर्थ इसप्रकार किया गया है :
“अध्यात्मशब्दस्यार्थः कथ्यते - "मिथ्यात्वरागादिसमस्त विकल्पजालरूपपरिहारेण स्वशुद्धात्मन्यधि यदनुष्ठानं तदध्यात्ममिति'
अध्यात्मशब्द का अर्थ कहते है - मिथ्यात्व, राग आदि समस्त विकल्पजाल के त्याग से स्वशुद्धात्मा में जो अनुष्ठान होता है, उसे अध्यात्म कहते हैं ।"
निश्चयनय के उक्त भेद-प्रभेदों में प्रत्येक द्रव्य की अपने गुरण - पर्यायों से भिन्नता ( भेद) को मुख्य आधार बनाया गया है ।
प्रत्येक द्रव्य अपने गुण - पर्यायों से अभिन्न एवं पर तथा पर के 'गुणपर्यायों से भिन्न है । इसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमन का कर्त्ता स्वयं है । किसी भी द्रव्य के परिणमन में किसी अन्य द्रव्य का कोई हस्तक्षेप
बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ५७ की टीका