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________________ ७६ ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् उसका उत्तर :- स्त्री और पुरुष - इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र की भाँति, चूने और हल्दी के मिश्रण से उत्पन्न हुए वर्णविशेष की भाँति, राग-द्वेष आदि जीव और कर्म - इन दोनों के संयोगजनित हैं । नय की विवक्षा के अनुसार विवक्षित एकदेशशुद्धनिश्चयनय से राग-द्वेष कर्मजनित कहलाते हैं और अशुद्धनिश्चनय से जीवजनित कहलाते है । यह अशुद्धनिश्चयनय शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से व्यवहार ही है । प्रश्न :- साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से राग-द्वेष किसके हैं - ऐसा हम पूछते हैं ? उत्तर :- - साक्षात् शुद्धनिश्चयनय से स्त्री और पुरुष के संयोग से रहित पुत्र की भाँति, चूना और हल्दी के संयोगरहित रंगविशेष की भाँति उनकी ( राग-द्वेष की) उत्पत्ति ही नही है; तो कैसे उत्तर दें ?” उक्त दोनों उद्धरणों में से एक में सांसारिक सुख-दुःख राग-द्वेषाि दयिक भावों को शुद्धनिश्चयनय से कर्मजनित बताया गया है दूसरे में एकदेशशुद्धनिश्चयनय से । अतः ये दोनों कथन परस्पर विरोध प्रतीत होते हैं । परन्तु थोड़ी-सी गहराई में जाकर विचार करें तो इन कोई विरोध नहीं है । बात मात्र इतनी सी है कि परमात्मप्रकाश के कथ में 'शुद्धनिश्चयनय' शब्द का प्रयोग उस मूल अर्थ में हुआ है कि जिस शुद्धनिश्चयनय के तीनों भेद गर्भित है अर्थात् उन तीनों भेदों में से कोई भ एक भेद विवक्षित हो सकता है । तथा बृहद्रव्यसंग्रह में मूल शुद्धनिश्चयनः को न लेकर उसके प्रभेदों की अपेक्षा बात की है । अतः वहाँ एकदेशशुद्ध निश्चयनय से राग-द्वेष को कर्मजनित कहा है तथा साक्षात्शुद्धनिश्चयन से उनकी उत्पत्ति से ही इन्कार कर दिया है । यदि कहीं यह कथन भ आ जावे कि शुद्धनिश्चयनय से वे ( राग-द्वेष ) हैं ही नहीं, तो भी घबड़ा जैसी बात नहीं है, क्योंकि वहाँ यह समझ लेना कि यहाँ 'शुद्धनिश्चयनर शब्द का प्रयोग परमशुद्धनिश्चयनय के अर्थ में किया गया है । ' वे नहीं इसका अर्थ मात्र इतना ही है कि वे ( राग-द्वेष) परमशुद्धनिश्चयनय विषयभूत आत्मा में नहीं हैं । इसप्रकार की शंकाएँ उत्पन्न न हों - इसके लिए यह बात ध्यान ले लेनी चाहिए कि जिनागम में 'शुद्धनिश्चयनय' के तीनों भेदों के अर्थ शुद्धनिश्चयनय शब्द का प्रयोग तो हुआ ही है, साथ में मात्र 'शुद्धनय' श‍ का प्रयोग भी पाया जाता है । अत: जहाँ विशेष भेद का उल्लेख न हो वा हमें आगमानुसार अपने विवेक का प्रयोग करके ही यह निश्चय कर होगा कि यह कथन शुद्धनिश्चयनय के किस प्रभेद की अपेक्षा है ।
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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