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[ जिनवरस्य नयचक्रम् जब तक पूर्णता नहीं हुई, तब तक निश्चय और व्यवहार दोनों होते हैं । पूर्णता हो गई अर्थात् स्वयं स्वयं में पूर्ण स्थिर हो गया, वहां सभी प्रयोजन सिद्ध हो गये । उसमें तीर्थ व तीर्थफल सभी कुछ पा गया।"
(२) प्रश्न :- अनुभव के काल में तो निश्चय और व्यवहार दोनों ही नहीं रहते हैं । अतः निश्चयनय को अनुभव से कैसे जोड़ा जा सकता है ?
उत्तर :- हाँ, यह बात तो सही है कि अनुभव के काल में निश्चय और व्यवहार-दोनों नयों सम्बन्धी विकल्प नहीं रहते, पर व्यवहारनय के साथ-साथ व्यवहारनय के विषय का प्राश्रय भी छूट जाता है और निश्चयनय (शुद्धनय) का मात्र विकल्प छूटता है, विषय का आश्रय रहता है। निश्चय के विषय को भी निश्चय कहते हैं । इसी आधार पर कहा जाता है कि :
"रिणच्छयणयासिदा पुरण मुरिणणो पावंति रिणव्वाणं ॥२७२॥
निश्चयनय का आश्रय लेने वाले मुनिराज निर्वाण को प्राप्त करते है।"
इसीकारण यह कहा जाता है कि निश्चयनय के छोड़ने पर तत्त्वोपलब्धि अर्थात् आत्मानुभव नही होगा। यही कारण है कि अनुभव नयातीतविकल्पातीत होने पर भी निश्चयनय से जुड़ा हुआ है।
(३) प्रश्न :- समयसार में एक ओर तो अनुभव को नयपक्षातीत कहा है तथा दूसरी ओर यह भी कहा है कि निश्चयनय का आश्रय लेनेवाले मुनिराज ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं इसका क्या कारण है ?
उत्तर : - अनुभव को नयपक्षातीत कहने से आशय नय-विकल्प के अभाव से है । नयपक्षातीत अर्थात् नयविकल्पातीत । किन्तु जहाँ निश्चयनय के आश्रय से अनुभव होता है- यह कहा हो, वहाँ निश्चयनय का अर्थ निश्चयनय का विषयभूत अर्थ लेना चाहिए। प्राशय यह है कि अनुभव में निश्चयनय (परमशुद्धनिश्चयनय) के विषयभूत शुद्धात्मा का प्राश्रय तो रहता है, पर 'में शुद्ध हूँ', इसप्रकार का निश्चयनय संबंधी विकल्प नहीं रहता।
___ यह तो पहिले स्पष्ट किया ही जा चुका है कि निश्चय के दो अर्थ होते हैं, एक निश्चयनय सम्बन्धी विकल्प और दूसरा निश्चयनय का विषयभूत अर्थ। ' प्रवचनरत्नाकर भाग १ पृष्ठ १६२-१६३ २ समयसार, गाथा २७२