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निश्चय और व्यवहार ]
[ ४७ इस सम्बन्ध में पंचाध्यायीकार के विचार भी दृष्टव्य हैं, जो इसप्रकार हैं :
व्यवहारः प्रतिषेध्यस्तस्य प्रतिषेधकश्च परमार्थः । व्यवहारप्रतिषेधः स एव निश्चयनयस्य वाच्यः स्यात् ॥ व्यवहारः स यथा स्यात् सद् द्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा। नेत्येतावन्मात्रो भवति स निश्चयनयो नयाधिपतिः॥'
व्यवहारनय प्रतिषेध्य (निषेध करने योग्य) है और निश्चयनय उसका निषेधक अर्थात् निषेध करने वाला है । प्रतः व्यवहार का प्रतिषेध करना ही निश्चयनय का वाच्य है।
जैसे द्रव्य सद्रूप है और जीव ज्ञानवान है ऐसा कथन व्यवहारनय है और 'न' इस पद द्वारा निषेध करना ही निश्चयनय है, जो कि सब नयों में मुख्य है, नयाधिपति है।"
जब व्यवहार निश्चय का प्रतिपादक है तो वह निश्चय का विरोधी कैसे हो सकता है ? जहाँ एक ओर यह बात है; वहीं दूसरी ओर यह प्रश्न भी उपस्थित होता है कि यदि निश्चय-व्यवहार में विरोध नहीं है तो फिर निश्चय व्यवहार का निषेध क्यों करता है ?
गम्भीरता से विचार करें तो इसमें अनचित लगने जैसी कोई बात नहीं है; क्योंकि इसप्रकार की स्थितियाँ लोक में भी देखने में माती हैं।
शतरंज के दो खिलाड़ी हैं। उन्हें आप मित्र कहेगे या विरोधी ? वे परस्पर पूरक भी हैं और प्रतिद्वन्द्वी भी। पूरक इसलिए कि दूसरे के बिना खेल ही नहीं हो सकता; प्रतिद्वन्द्वी बिना, खेले किससे? अतः शतरंज के खेल में प्रतिद्वन्द्वी पूरक ही तो है । जब वह प्रतिद्वन्द्वी है, तो विरोधी ही है। क्योंकि विरोधी ही तो प्रतिद्वन्द्वी होता है। पूरक होने से मित्र भी है, क्योंकि मित्र ही तो आपस में खेलते हैं, शत्रुओं से खेलने कौन जाता है ?
इसप्रकार हम देखते हैं कि शतरंज के दो खिलाड़ी परस्पर मित्र भी हैं और विरोधी भी।
आप कह सकते हैं कि यह कैसे हो सकता है कि एक ही व्यक्ति एक साथ हमारा मित्र भी हो और शत्रु अर्थात् विरोधी भी। पर अपेक्षा ध्यान में रखकर गहराई से विचार करेंगे तो सब-कुछ स्पष्ट हो जावेगा। ' पंचाध्यायी, म० १, श्लोक ५९८-५९६