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निश्चय मौर व्यवहार ]
[ ४३ पंचाध्यायीकार ने स्वयं इसप्रकार का प्रश्न उठाकर उत्तर दिया है, जो इसप्रकार है :
"तस्मान्न्यायागत इति व्यवहारः स्यानयोऽप्यभूतार्थः । केवलमनुमवितारस्तस्य च मिथ्यादशो हतास्तेऽपि ॥६३६।। ननु चवं चेनियमादादरणीयो नयो हि परमार्थः । किमकिञ्चत्कारित्वाद् व्यवहारेण तथाविधेन यतः ॥६३७॥ नवं यतो बलादिह विप्रतिपत्तौ च संशयापत्तो। वस्तुविचारे यदि वा प्रमारणमुभयालम्बि तज्ज्ञानम् ॥६३८॥ तस्मादाश्रयणीयः केषाञ्चित् स नयः प्रसङ्गत्वात् । अपि सविकल्पानामिव न श्रेयो निर्विकल्पबोषवताम् ॥६३६॥ ननु च समीहितसिद्धिः किल चैकस्मानयात्कथं न स्यात् । विप्रतिपत्तिनिरासो वस्तुविचारश्च निश्चयादिति चेत् ॥६४०॥ नवं यतोऽस्ति मेदोऽनिर्वचनीयो नयः स परमाथः । तस्मात्तीर्थस्थितये श्रेयान् कश्चित् स वावदूकोऽपि ॥६४१॥'
इसलिए न्यायबल से यह बात प्राप्त हुई कि व्यवहारनय अभूतार्थ है और जो केवल उस व्यवहारनय का अनुभव करने वाले हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं और इसलिए वे पथभ्रष्ट हैं ।
शंका:-यदि व्यवहारनय प्रभूतार्थ है तो नियम से निश्चयनय ही मादर करने योग्य है, क्योंकि व्यवहारनय अकिञ्चित्कर है; अतः अपरमार्थभूत उससे क्या प्रयोजन है ?
समाधान :- यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि किसी विषय में बलपूर्वक विवाद होने पर और सन्देह होने पर या वस्तुविचार के समय जो ज्ञान दोनों नयों का प्राश्रय लेकर प्रवृत्त होता है, वह प्रमाण माना गया है। इसलिए प्रसंगवश किन्हीं को व्यवहारनय का प्राश्रय करना योग्य है। किन्तु वह सविकल्प ज्ञानवालों के समान निर्विकल्प ज्ञानवालों के लिए उपयोगी नहीं है।
शंका:- अपने अभीष्ट की सिद्धि एक ही नय से क्यों नहीं हो जाती, क्योंकि विवाद का परिहार और वस्तु का विचार निश्चयनय से ही हो जाएगा, इसलिए व्यवहारनय के मानने की क्या आवश्यकता है? ' पंचाध्यायी, म० १, श्लोक ६३६ से ६४१