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[ जिनवरस्य नयचक्रम् व्यवहारनय ने समयसार की २७वीं गाथा में पर से एकता बताई थी भोर ७वीं गाथा में एक प्रात्मा में भेद किये हैं तथा निश्चयनय ने २७वीं गाथा में पर से भिन्नता स्थापित की थी और ७वीं में भेद का निषेध कर एकता स्थापित की है।
इसप्रकार व्यवहार का कार्य निज में भेद और पर से प्रभेद करके समझाना है और निश्चय का कार्य पर से भेद और स्व से प्रभेद करना है। यही इनके परस्पर विरोध का रूप है ।।
निश्चय-व्यवहार के सम्बन्ध में जो स्थिति उक्त भेदाभेद सम्बन्धी है, वही स्थिति कर्ता-कर्मादि सम्बन्धी भेदाभेद की भी जाननी चाहिए।
जहाँ एक मोर व्यवहारनय से निमित्तादिक की अपेक्षा एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कर्तादि कहा जाता है और निश्चय से 'मैं ही मेरा कर्ता-धर्ता' कहा जाता है, वहीं दूसरी ओर कर्ता-कर्म का भेद करना ही व्यवहार है, और इसप्रकार के भेद का निषेध निश्चय का कार्य माना गया है।
इसप्रकार निश्चय का कार्य अभिन्न कर्ता-कर्मादि षटकारक के साथ-साथ कर्ता-कर्म के भेद का निषेध भी है तथा व्यवहार का कार्य जहाँ एक ओर कर्ता-कर्म का भेद करना है, वहीं दूसरी ओर भिन्न-भिन्न द्रव्यों के बीच कर्ता-कर्म का सम्बन्ध बताना भी है। इन सबका सोदाहरण विशेष विस्तार निश्चय-व्यवहार के भेद-प्रभेदों के कथन में यथास्थान किया जावेगा।
इसप्रकार भेदाभेद सम्बन्धी निश्चय-व्यवहार में कर्ता-कर्मादि सम्बन्धी भेदाभेद भी आ जाता है ।
निश्चय-व्यवहार की परिभाषा में भेदाभेद विशेषरणों के साथ 'उपचार' विशेषण का भी प्रयोग है। दो द्रव्यों की एकता सम्बन्धी जितने भी संयोगी कथन हैं, वे सब उपचरित ही तो हैं । देह और प्रात्मा को एक बतानेवाला संयोगी कथन उपचरित व्यवहार ही तो है । एक द्रव्य के भाव को दूसरे द्रव्य का बताना, एक द्रव्य की परिणति को दूसरे द्रव्य की बताना, दो द्रव्यों की मिली हुई परिणति को एक द्रव्य की कहना, दो द्रव्यों के कारण-कार्यादिक में भी इसप्रकार के कथन करना ये सब उपचरित कथन ही हैं।
'मात्माश्रित कथन निश्चय और पराश्रित कथन व्यवहार' वाली परिभाषाएँ भी इनमें घटित हो जाती हैं।