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[ जिनवरस्य नयचक्रम् स्वार्थों और सामाजिक राजनीति में उलझकर उपेक्षित न हो जाये - तदर्थ जिनागम के परिपेक्ष्य में इसका सप्रमाण गंभीरतम विवेचन अपेक्षित है। यही कारण है कि यहां इस पर विस्तार से विचार किया जा रहा है।
जिनागम में निश्चय-व्यवहार को अनेक परिभाषाएँ प्राप्त होती हैं।
नयचक्रकार माइल्लघवल लिखते हैं :"जो सियमेदुवयारं धम्माणं कुरणइ एगवत्थुस्स ।
सो ववहारो भणियो विवरीमो रिपच्छयो होइ॥'
जो एक वस्तु के धर्मों में कथंचित् भेद व उपचार करता है, उसे व्यवहारनय कहते हैं और उससे विपरीत निश्चयनय होता है।"
इसीप्रकार का भाव आलापपद्धति में भी व्यक्त किया गया है :
"अमेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः । मेवोपचारतया वस्तु व्यवलियत इति व्यवहारः ।
अभेद और अनुपचाररूप से वस्तु का निश्चय करना निश्चयनय है और भेद तथा उपचाररूप से वस्तु का व्यवहार करना व्यवहारनय है।" पंचाध्यायीकार इसी बात को इसप्रकार व्यक्त करते हैं :
"लक्षणमेकस्य सतो यथाकञ्चिद्यथा द्विषाकरणम् ।
व्यवहारस्य तथा स्यात्तदितरथा निश्चयस्य पुनः ॥ जिसप्रकार एक सत् को जिस किसी प्रकार से विभाग करना व्यवहारनय का लक्षण है, उसीप्रकार इससे उल्टा निश्चयनय का लक्षण है।"
पण्डितप्रवर पाशाधरजी लिखते हैं :"कर्ताद्या वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसिद्धये।
साध्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदमेददृक् ॥
जो निश्चय की प्राप्ति के लिए कर्ता, कर्म, करण प्रादि कारकों को जीव आदि वस्तु से भिन्न बतलाता है, वह व्यवहारनय है तथा अभिन्न देखनेवाला निश्चयनय है।"
१ द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा २६४ २ पंचाध्यायी, अ० १, श्लोक ६१४ ३ अनागारधर्मामृत, प्र. १, श्लोक १०२