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[ जिनवरस्य नयचक्रम्
द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक दोनों ही नय निश्चय व्यवहार - दोनों नयों के हेतु हैं । जिनागम में समागत अनेक प्रयोगों से हमारी बात सहज सिद्ध होती है, क्योंकि द्रव्यार्थिक के अनेक भेदों को अध्यात्म में व्यवहार कहा जाता है तथा पर्यायार्थिक के अनेक भेदों का कहीं-कहीं निश्चय के रूप में भी कथन मिल जावेगा ।
वस्तुत: यह दो प्रकार की कथन-पद्धतियों के भेद हैं, इन्हें एकदूसरे से मिलाकर देखने की आवश्यकता ही नहीं है । मुख्यतः श्रध्यात्मपद्धति में निश्चय - व्यवहार शैली का प्रयोग होता है और श्रागम-पद्धति में द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक शैली का प्रयोग देखा जाता है ।
यद्यपि ये दोनों शैलियाँ भिन्न-भिन्न हैं और इनके प्रयोग भी भिन्नभिन्नरूप में होते हैं; तथापि इनके प्रयोगों के बीच कोई विभाजन रेखा खींचना संभव नहीं है, क्योंकि आगम और अध्यात्म व उनके अभ्यासियों में भी ऐसा कोई विभाजन नहीं है । प्रागमाभ्यासी अध्यात्मी भी होते हैं, इसी प्रकार अध्यात्मी भी श्रागमाभ्यास करते ही हैं । तथा ग्रंथों में भी इस प्रकार का कोई पक्का विभाजन नहीं है । श्रागम ग्रंथों में अध्यात्म की नौर अध्यात्म ग्रंथों में आगम की चर्चा पाई जाती है ।
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यद्यपि निश्चय-व्यवहार और द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक पर्यायवाची नहीं हैं; तथापि द्रव्यार्थिक निश्चयनय के और पर्यायार्थिक व्यवहारनय के कुछ निकट अवश्य है ।
मूलनय
उक्त सम्पूर्ण चर्चा के उपरान्त भी यह प्रश्न तो खड़ा ही है कि दो कौन हैं - निश्चय - व्यवहार या द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक । बहुत-कुछ विचार-विमर्श के बाद यही उचित लगता है कि अध्यात्मशैली के मूलनय निश्चय व्यवहार हैं और भागमम- शैली के मूलनय द्रव्यार्थिकपर्यायाथिक हैं ।
'श्रालापपद्धति'' में लिखा है :
"पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयौ द्वौ निश्चयो
व्यवहारश्च ।
फिर भी अध्यात्म-भाषा के द्वारा नयों का कथन करते हैं । मूलनय दो हैं - निश्चय और व्यवहार ।"
१ प्रालापपद्धति, पृष्ठ २२८ [ यह लघुग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' के अंत में मुद्रित है । उक्त पृष्ठ संख्या इस ग्रंथ के अनुसार दी गई है । आगे भी इसी प्रति के आधार पर पृष्ठ संख्या दी जावेगी ।]