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नयों की प्रामाणिकता
वस्तुस्वरूप के अधिगम एवं प्रतिपादन में नयों का प्रयोग जनदर्शन की मौलिक विशेषता है । अन्य दर्शनों में नय नाम की कोई चीज ही नहीं है; सर्वत्र प्रमाण की ही चर्चा है ।
जैनदर्शन में तत्त्वार्थों के अधिगम के उपायों की चर्चा में प्रमाण और नय - दोनों का समानरूप से उल्लेख है ।'
अतः यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि नय प्रमाण हैं या अप्रमाण । यदि अप्रमाण हैं तो उनके प्रयोग से क्या लाभ है ? और यदि प्रमाण हैं तो प्रमाण से भिन्न हैं या अभिन्न । यदि अभिन्न हैं तो फिर उनके अलग उल्लेख की आवश्यकता नहीं और भिन्न हैं तो फिर नय प्रमाण कैसे हो सकते हैं, अप्रमाण ही रहे। इस प्रश्न का उत्तर प्राचार्य विद्यानन्दि इसप्रकार देते हैं :
"नाप्रमाणं प्रमारणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः ।
स्यात्प्रमाणकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः ।। नय न तो अप्रमाण है और न प्रमाण है, किन्तु ज्ञानात्मक है; अतः प्रमाण का एकदेश है - इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है।"
___ इसी बात को स्पष्ट करते हुए सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी लिखते हैं :
"शंकाकार कहता है कि यदि नय प्रमाण से भिन्न है तो वह अप्रमाण ही हुआ क्योंकि प्रमाण से भिन्न अप्रमाण ही होता है । एक ज्ञान प्रमाण भी न हो और अप्रमाण भी न हो, ऐसा तो सम्भव नहीं है क्योंकि किसी को प्रमाण न मानने पर अप्रमाणता अनिवार्य है और अप्रमाण न मानने पर प्रमाणता अनिवार्य है - दूसरी कोई गति नहीं है। ' 'प्रमाणनयरधिगमः' : तत्त्वार्थसूत्र, म० १, सूत्र ६ २ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक : नयविवरण, श्लोक १०