________________
नय का सामान्य स्वरूप ]
[ १६ एक धर्म को ही नय विषय करता है - इस तथ्य को ध्यान में रखकर पंचाध्यायीकार नय की चर्चा इसप्रकार करते हैं :
"इत्युक्तलक्षणेऽस्मिन् विरुद्धधर्मद्वयात्मके तत्त्वे ।
तत्राप्यन्यतरस्य स्यादिह धर्मस्य वाचकश्च नयः ॥'
जिसका लक्षण कहा गया है ऐसे दो विरुद्ध धर्मवाले तत्व में किसी एक धर्म का वाचक नय होता है।"
इन सब बातों को धवलाकार ने और भी अधिक स्पष्ट करने का यत्न किया है, जो कि इमप्रकार है :
"को नयो नाम? ज्ञातुरभिप्रायो नयः । अभिप्राय इत्यस्य कोऽर्थः ?
प्रमाणपरिग्रहीतार्थंकदेशवस्त्वध्यवसायः अभिप्रायः । युक्तितः प्रमारणात् प्रर्थपरिग्रहः द्रव्यपर्याययोरन्यतरस्य प्रर्थ इति परिग्रहो वा नयः । प्रमाणेन परिच्छिन्नस्य वस्तुनः द्रव्ये पर्याय वा वस्त्वध्यवसायो नय इति यावत् ।
प्रश्न :- नय किसे कहते हैं ? उत्तर :- ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं । प्रश्न :- अभिप्राय इसका क्या अर्थ है ?
उत्तर :-प्रमाण से गृहीत वस्तु के एकदेश में वस्तु का निश्चय ही अभिप्राय है । युक्ति अर्थात् प्रमाण से अर्थ ग्रहण करने अथवा द्रव्य और पर्यायों में से किसी एक को ग्रहण करने का नाम नय है। अथवा प्रमाण से जानी हुई वस्तु के द्रव्य अथवा पर्याय में अर्थात् सामान्य या विशेष में वस्तु के निश्चय को नय कहते हैं, ऐसा अभिप्राय है।"
नयों का कथन सापेक्ष ही होता है, निरपेक्ष नहीं; क्योंकि वे वस्तु के अंशनिरूपक हैं। नयों के कथन के साथ यदि अपेक्षा न लगाई जावे तो जो बात वस्तु के अंश के बारे में कही जा रही है, उसे सम्पूर्ण वस्तु के बारे में समझ लिया जा सकता है, जो कि सत्य नहीं होगा। जैसे हम कहें 'प्रात्मा अनित्य है'; यह कथन पर्याय की अपेक्षा तो सत्य है, पर यदि इसे १ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध, श्लोक ५०४ २ जनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग २, पृष्ठ ५१३