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नश्चय-व्यवहार : विविध प्रयोग प्रश्नोत्तर ]
[ १७३ पर्चा आगे चलकर यथास्थल ही की जावेगी। अतः यहाँ उनके विस्तार जाना प्रासंगिक न होगा।
(१२) प्रश्न :- इसका मतलब तो यह हुआ कि अभी तो बहुत कुछ की है । क्या हमको यह सब समझना होगा? ये सब बात तो विद्वानों की है। हमें इन सबसे क्या? हमारे पास इतना समय नहीं है कि इन सव में माथा मारें, हमें तो सीधा सच्चा मार्ग चाहिए। आप कहे तो चाहे जतना रुपया खर्च कर सकते है, पर इन सब चक्करों मे पड़ना अपने बस की बात नहीं है। हम तो आत्मार्थी है, हमें कोई पण्डित थोड़े ही बनना है; जो इन सबमे उल में ?
उत्तर :- भाई ! बात तो ऐसी ही है। अभी तो मात्र निश्चयव्यवहार की ही चर्चा हुई है । द्रव्याथिक, पर्यायाथिक, नैगमादि सात नय; उपनय तथा प्रवचनसार में समागत ४७ नयों की चर्चा अभी शेप है। पर घबड़ाने की आवश्यकता नहीं है । मुक्तिमार्ग तो सीधा, सच्चा, मरल और महज है।
भाई ! तुम तो स्वभाव मे अनन्तज्ञान के धनी, ज्ञानानदस्वभावी भगवान आत्मा हो; स्वभाव मे भरा अनंतपानद और अनंतज्ञान पर्याय में भी प्रगट करने अर्थात् पर्याय मे भगवान बनने के सकल्पवाले आत्मार्थी बन्धु हो। सर्वज्ञ बनने के आकांक्षी होकर इतना जानने से ही घबडाने लगे। जान का कोई भार नही होता - यह जानते हुए भी ऐसा क्यो कहते हो कि क्या हमे भी यह सब समझना होगा? भाई ! तुम्हे नो मात्र अपना आत्मा ही जानना होगा, शेष सब तो तुम्हारे ज्ञान में झलकेंगे। ये सब तुम्हारे ज्ञान में सहज ही प्रतिबिम्बित हों, क्या इसमे भी तुम्हें ऐतराज है ? यदि हाँ तो फिर आप मर्वज्ञ भी क्यों बनना चाहते है ? क्योकि मर्वज बन जाने पर तो लोकालोक के समस्त पदार्थ आपके ज्ञानदर्पण में प्रतिबिम्बित होंगे।
___'ये सब बातों तो विद्वानों की है, हमे इनसे क्या? हम तो प्रात्मार्थी हैं।' - ऐसा कहकर आप क्या कहना चाहते है ? क्या जिनवाणी का अध्ययन-मनन करना मात्र विद्वानों का काम है, आत्मार्थियों का नहीं ? क्या विद्वान आत्मार्थी नही होते या आत्मार्थी विद्वान नही हो सकता ? भाई ! सच्चा आत्मार्थी ही वास्तविक विद्वान होता है और जिनवागी का जानकार विद्वान ही सच्चा आत्मार्थी हो सकता है। जिनवारणी के अध्ययन-मनन में अरुचि प्रगट करनेवाले, जिनवाणी के अध्ययन-मनन को हेय समझनेवाले, विषयकषाय और धंधापानी में अन्धे होकर उलझे रहनेवाले लोग आत्मार्थी नहीं हो सकते ।