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निश्चय - व्यवहार : विविध प्रयोग प्रश्नोत्तर ]
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जिसप्रकार एक वकील को कानून की जानकारी तो अनिवार्य है, क्योंकि उसके बिना वह वकालात करेगा कैसे ? किन्तु अन्य विषयों का ज्ञान होना यद्यपि उसके लिए अनिवार्य नहीं है, तथापि अन्य विषयों का भी सामान्य ज्ञान तो अपेक्षित है ही । उसीप्रकार एक आत्मार्थी को प्रयोजनभूत आत्मा आदि पदार्थों का जानना अनिवार्य है, अन्यथा वह आत्मानुभव करेगा कैसे ? किन्तु अप्रयोजनभूत पदार्थों का ज्ञान यद्यपि उसके लिए अनिवार्य नही है, तथापि प्रप्रयोजनभूत पदार्थों का भी सामान्य ज्ञान तो अपेक्षित है ही ।
आध्यात्मिक ग्रंथों में प्रतिपादित प्रयोजनभूत शुद्धात्मादि तत्त्व तो आगम, अनुमानादि के साथ-साथ प्रत्यक्षानुभूतिगम्य पदार्थ है, किन्तु प्रयोजनभूत पदार्थ तो अल्पज्ञों द्वारा आगमादि परोक्षज्ञानों द्वारा ही जाने जा सकते है । अत: उनका प्रतिपादन भी आवश्यक होने से आगम में उनका प्रतिपादन किया गया है ।
परमात्मा आत्मज्ञ होने के साथ-साथ सर्वज्ञ भी होते है, तथा प्रत्येक आत्मा भी परमात्मा के समान आत्मज्ञ व सर्वज्ञस्वभावी है । वीतरागी परमात्मा की निरक्षरी दिव्यध्वनि में आत्मा के समान सर्वलोक का प्रतिपादन भी सहज होता है । उस दिव्यध्वनि के आधार पर गरणधरदेवादि आचार्य परम्परा द्वारा जिन शास्त्रों का निर्मारण होता है, उनमें भी आत्मा के साथ-साथ सर्वलोक का भी प्रतिपादन होता है । उनमे से जिनमें आत्मा आदि प्रयोजनभूत तत्त्वार्थों की चर्चा होती है, वे अध्यात्म शास्त्र कहे जाते है और जिनमें सर्व जगत की व सर्व प्रकार की चर्चायें होती है, उन्हे आगम कहते हैं । श्रागम और अध्यात्म – दोनों को मिलाकर भी आगम कहा जाता है ।
इसप्रकार आगम और अध्यात्म - दोनों ही भगवान की वारणी है । उनमें हीनाधिक का भेद करना उचित नहीं है, तथापि बुद्धि की अल्पता और समय की कमी आदि के अनुसार प्राथमिकता का निर्णय तो करना ही होगा । इस प्रक्रिया में प्रयोजनभूत पदार्थों को सहज प्राथमिकता प्राप्त होने से आत्मार्थी की दृष्टि में श्रागम की अपेक्षा अध्यात्म को सहज प्राथमिकता प्राप्त हो जाती है । बस बात इतनी ही है, परन्तु इसमें आगम के प्रतिपादन या अध्ययन की निरर्थकता खोजना बुद्धिमानी का काम नहीं है ।