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नश्चय-व्यवहारनय : विविध प्रयोग प्रश्नोत्तर ]
[ १६५ अब अध्यात्मभाषा से नयों के लक्षण कहते है :
'सर्व जीव शुद्ध-बुद्ध-एकस्वभाववाले है' - यह शुद्धनिश्चयनय का लक्षण है । 'रागादि ही जीव हैं - यह अशुद्धनिश्चयनय का लक्षण है। 'गुण और गुणी अभेद होने पर भी भेद का उपचार करना' - यह सद्भूतव्यवहार का लक्षण है। 'जीवके केवलज्ञानादि गुण है' - यह अनुपचरितशुद्धसद्भूतव्यवहार का लक्षण है। 'जीवके मतिज्ञानादि विभावगुण है' - यह उपचरित-अशुद्धसद्भूतव्यवहार का लक्षण है। संश्लेषसंबंधवाले पदार्थो में 'शरीरादि मेरे है' - यह अनुपचरित-असद्भूतव्यवहार का लक्षण है। जहाँ संश्लेषसंबंध नहीं है - 'वहाँ पुत्रादि मेरे है' - यह उपचरितअसद्भूतव्यवहार का लक्षण है।
इसप्रकार नयचक्र के मूलभूत छह नय सक्षेप में जानना चाहिए।"
उक्त सम्पूर्ण नयो की विषयवस्तु बताते समय आत्मा को सामने रखा गया है । तथा प्रत्येक नय का वजन (महिमा) आत्महित की मुख्यता मे निश्चित किया गया है। उनकी भूतार्थता और अभूतार्थता का आधार भी आत्महित की दृष्टि को बनाया गया है।
पचाध्यायी में व्यवहारनय के तो चारो भेद स्वीकार कर लिये गये है, किन्तु उनकी विषयवस्तु के सबध मे भिन्न अभिप्राय व्यक्त किया गया है तथा निश्चयनय के भेद उन्हे स्वीकार नही है। इन सबकी चर्चा विस्तार से की ही जा चुकी है।
इमप्रकार हम देखते है कि यह दोनो हो शेलिया अध्यात्म शैलियाँ है।
(४) प्रश्न :- प्रतिपादन चाहे वस्तुस्वरूप की मुख्यता से हो, चाहे आत्महित की मख्यता से; होगा तो वैसा ही जैसा वस्तु का स्वरूप है, अन्यथा तो हो नही सकता । आत्महित भी तो वस्तुस्वरूप की सच्ची समझ से ही होता है। अतः दोनो दृष्टियों से किये गये प्रतिपादन में अन्तर कसे हो सकता है ? यदि होता है तो किमप्रकार का होता है ? कृपया उदाहरण देकर समझाइये।
उत्तर:- जब हम स्कूल मे छात्रो को भारत की परिवहन व्यवस्था मानचित्र द्वारा समझाते है तो हमारी प्रतिपादन शैली जिसप्रकार की होती है, किसी पथिक को रास्ता बताते समय उसप्रकार की नहीं होती। मानचित्र द्वारा परिवहन व्यवस्था समझाते समय हमारी दृष्टि में सम्पूर्ण भारत रहता है। भारत के प्रमुख नगर, ग्रामादि के साथ-साथ परिवहन