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[ जिनवरस्य नयचक्रम् द्रव्यसामान्य में अथवा अशुद्धद्रव्यपर्यायरूप अशुद्धद्रव्य में अशुद्धगुणों व अशुद्धपर्यायों के आधार पर भेदोपचार द्वारा गुण-गणी, पर्याय-पर्यायी, लक्षण-लक्ष्य प्रादिरूप द्वैत उत्पन्न करना अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय है। ___अशुद्धगुण व पर्यायें औदयिकभावरूप होते है । जैसे- ज्ञानगुण की मतिज्ञानादि पर्यायें, चारित्रगुण की राग-द्वेषादि पर्याये तथा वेदनगुण की विषयजनित सुख-दुख आदि पर्याये।
'जीवसामान्य मतिज्ञानवाला है या राग-द्वेपादिवाला है।' - ये द्रव्यसामान्य की अपेक्षा अशुद्धसद्भूतव्यवहार के उदाहरण है।
_ 'संसारी जीव मतिज्ञानवाला है या राग-द्वेषादिवाला है।' - ये द्रव्यपर्याय की अपेक्षा अशुद्धसद्भूतव्यवहार के उदाहरण है।
इसे उपचरितसद्भूत भी कहते है, क्योकि परसंयोगी वैभाविक प्रौदयिक अशुद्धभावो का द्रव्य के साथ स्थायी संबंध नहीं है, न उसके स्वभाव से उनका मेल खाता है। अतः वे उपचरितभाव कहे जाने योग्य है।"
इसप्रकार हम देखते है कि शुद्धसद्भुत और अशुद्धसद्भूतव्यवहारनयों के विविध प्रयोग जिनवाणी मे मिलते है। पंचाध्यायी मे समागत प्रयोगों की तो अभी चर्चा ही नही की गई है।
(६) प्रश्न :- सद्भूतव्यवहारनय के समान असद्भूतव्यवहारनय के प्रयोगों में भी विभिन्नता पाई जाती होगी ?
उत्तर:-असद्भूतव्यवहारनय के प्रयोगों में तो और भी अधिक विविधता और विचित्रता पायी जाती है। इस विषय को दृष्टि में रखकर जिनागम का जितनी गहराई से अध्ययन करो, नयचक्र की गंभीरता उतनी ही अधिक भासित होती है। जितना ज्ञान में आता है, उतना कहने में नही पाता और जितना कहने में आ जाता है, लिखने में उतना भी नही आता। कहीं विषय की जटिलता और कही विस्तार का भय लेखनी को अवरुद्ध करता है।
नय प्रयोगों की विविधता और विचित्रता की सर्वाङ्गीण जानकारी के लिए तो आपको परमागमरूपी सागर का ही मंथन करना होगा, तथापि यहाँ असद्भूतव्यवहारनय के सन्दर्भ में कुछ भी न कहना संगत न होगा। ' नयदर्पण, पृष्ठ ६७२-६७३