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[ जिनवरस्य नयचक्रम् उसे ही बताने की प्रतिज्ञा सर्वश्रेष्ठ दिगम्बर प्राचार्य कुन्दकुन्द समयसार के प्रारंभ में करते है। वह ही एक सार है और सब संसार है।
इस एक आत्मा के ही अवलोकन का नाम सम्यग्दर्शन है; इसे ही जानने का नाम सम्यग्ज्ञान है और इसी में जम जाने, रम जाने का नाम सम्यग्चारित्र है।"
एक ओर तो आप ऐसा कहते है और दूसरी ओर यह बावदूक व्यवहारनय प्रात्मा के इसी एकत्व-विभक्त स्वरूप के विरुद्ध बात करता है; फिर भी उसे इतना विस्तार क्यों दिया जा रहा है ? उसे बनाया ही क्यों जा रहा है ? जिम रास्ते जाना नही, उसे जानने से भी क्या लाभ है ?
उत्तर :- भाई ! जिम रास्ते जाना नही है, उस रास्ते को भी जानना आवश्यक है; क्योकि उस रास्ते पर जाने में आनेवाली विपत्तियों के मम्यग्ज्ञान विना उधर को भटक जाने की संभावना से इन्कार नही किया जा सकता । उस खतरनाक रास्ते पर कही हम चले न जावे- इसके लिए उसके सम्यक् स्वरूप को जानना अति आवश्यक है।
मम्यक-स्थिति जान लेने के बाद एक तो हम उधर जावेगे ही नही; कदाचित् प्रयोजनवशात् जाना भी पड़ा, तो भटकेगे नही। यह दुनियाँ व्यवहार में कही भटक न जाय, व्यवहार मे ही उलझकर न रह जाय ; इसके लिए व्यवहारनय का वास्तविक स्वरूप जान लेना आवश्यक ही नही, अनिवार्य भी है।
दूसरे व्यवहारनय का विषय भी सर्वथा अभावरूप नही है। वह है तो अवश्य, पर बात मात्र इतनी ही है कि वह जमने लायक नही, रमने लायक नहीं।
व्यवहार का विषय श्रद्धेय नही है, ध्येय नही है, पर ज्ञेय तो है ही। तुम उसे जानने से ही क्यों इन्कार करना चाहते हो? जाना तो गुणों और दोषों - दोनों को ही जाता है। क्योंकि
"बिन जाने से दोष-गुणनि को कैसे तजिए गहिये ।"
यद्यपि व्यवहारनय की स्थिति पर अबतक युक्ति, आगम और उदाहरणों के माध्यम से पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है, तथापि उक्त प्रश्न के सन्दर्भ में व्यवहारनय के भेद-प्रभेदों के कथन की उपयोगिता पर कुछ भी न कहना ठीक न होगा।