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________________ ६३ यत्याला जगति पदेशो जैन दर्शनमें कर्मवाद न विजती सो जगति पदेशो ___ यत्यहितो मुञ्चेऽय्य पापकम्मा ॥ -धम्मपद, ९-१२ । अन्तरिक्षमें चले जाओ, समुद्र में घुस जाओ, गिरिकन्दरामें जा घुसो, परन्तु जगतमें ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है कि जहां तुम्हें पाप कमीका फल भोगना न पड़े। जैनाचार्य श्रीअमितगति कहते है-- स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुर फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुट स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ -सामाणिकपाठ, ३०। अपने पूर्वकृत् काँका शुभाशुभ फल भोगना ही पड़ता है। यदि अन्यकृत कर्माका फल हमे भोगना पड़ता हो तब हमारे स्वकृत कर्म निरर्थक ही रहें। कर्मकी सत्ता अत्यन्त प्रबल है। उसके सामने किसीका कुछ बस नहीं चलता । यहां यह बतलाना अभीष्ट है कि वह कर्म क्या है और कर्मके साथ कर्मफलका क्या सम्बन्ध है। ___पूर्व मीमांसा दर्शनमें कर्मकाण्ड सम्बन्धी बहुत अधिक विवेचन है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि मीमांसा दर्शन इसके अतिरिक्त और कुछ कहना नहीं चाहता कि वेदविहित कर्मसे स्वर्गादि प्राप्त हो सकते हैं। कर्मस्वभाव और कर्मप्रकृतिके विषयमें कुछ स्पष्टीकरण
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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