________________
ईश्वर क्या है ?
५७
मात्र होते हैं । पुरुषाकार* यह आत्मप्रदेश, उनके अन्तिम पार्थिव शरीरकी अपेक्षा किंचित् न्यून होता है । सिद्ध पुरुष लोकाकाशके शिखर पर रहते है ।
सिद्धको पुनः संसारमें आना नहीं पड़ता । ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख - इस अनन्तचतुष्टयमें ही सिद्ध रमण करते है । कारणकार्यकी परंपरासे उनका सम्बन्ध सर्वथा छूट जाता है । दुःखपूर्ण संसारसे ये अत्यन्त दूर निकल जाते है । लोकाकाशकी ऊंचेसे ऊंची सीमा पर शांतिमय " सिद्धशीला " पर सिद्ध स्वभाव - अवस्था में रहते हैं । इन्हें भवयन्त्रणा छू नहीं सकती । कर्म- कारागार- लोकाकाश सिद्धोंसे बहुत दूर रह जाता है। + लोकाकाशके ऊपर, उसके सामने ही चिरनिस्तब्ध, अनिर्देश्य, चिरस्थिर अनंत अलोक है ।
सिद्ध- ( १ ) सम्यक्त्वके अधिकारी है । ( २ ) अनन्तज्ञानके अधिकारी हैं। लोक या अलोकमें ऐसी कोई वस्तु नहीं जो इनके ज्ञानका विषय न हो । (३) अनन्तदर्शनके अधिकारी है । ( ४ ) ' अनन्तवीर्य' अर्थात् अनन्त पदार्थ और द्रव्य-पर्याय ज्ञान और दर्शन में धारण करते हुवे भी सिद्धोंको श्रम नहीं होता । (५) वे निरतिशय सूक्ष्म होते हैं; इन्द्रियोंसे अगोचर हैं । (६) जिस प्रकार एक दीपशिखामें दूसरी दीपशिखा सहज मिल जाती है उसी प्रकार एक सिद्धके
* मनुष्यमान सिद्ध चन सकता है । सिद्धको शरीर नहीं है, केवल अवगाहना ही होती है। अर्थात् सिद्धके जीवप्रदेश त्यक्त पार्थिव शरीरके समान मनुष्याकारमें घन पीण्डस्त्ररूप वने रहते हैं । ( मु श्री. दर्शनविजयजी ) + क्यों कि सिद्धोंका स्थान लोकाकाशकी अतिम सीमा है। ( सु श्री. दर्शनविजयजी )