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जिनवाणी
पोषण हुवा हो । योगदर्शनकार स्पष्ट ही कहता है
. "लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष :
ईश्वरः। उप निरतिशयं सर्वज्ञत्ववीजम् । । ..: स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥"
-समाधिवाद २४-२६॥ ' अर्थात् एक ऐसा महापुरुष है जो क्लेग, कर्म, कर्मफल तथा प्रवृत्ति आदिसे सर्वथा अस्पृष्ट है । वही ईश्वर है। पूर्ण सर्वज्ञत्वनीज उसमें विद्यमान है, वह कालसे भी अनवच्छिन है और पूर्वाचार्योंका भी गुरु है।" भारतीय ' पूर्णसत्त्ववाद' का यह स्वरूप है। __पतनलिका मत है कि श्रेष्ठमें श्रेष्ठ, महानमें महान् और प्राज्ञमें भी प्राज्ञ जो महापुरुष है वही ईश्वर है । वृत्तिकार भोजराज कहता है___" घल्पत्यमहत्त्वादीनां धर्माणां सातिशयानां काष्ठाप्राप्तिः। यथा परमाणावल्पत्वस्य, आकाशे महत्वस्य। एवं ज्ञानायोऽपि चितधर्मास्तारतम्येन परिदृश्यमानाः केचिन्नरतिशयनामापादयन्ति
तिशयाः स ईश्वरः। । । अर्थात् अल्पत्व, महत्त्व आदि धर्मोंमें तारतम्य देखा जाता है। परमाणु सूक्ष्ममें सूक्ष्म और आकाश महानमें महान है। इसी प्रकार ज्ञानादि चित्तधर्मामें भी तारतम्य देखा जाता है। अत एक कोई एक ऐसा सत्त्व है कि जहां उन्कर्षकी अन्तिम सीमा आ जाती है । जिस महापुरुषों सर्व ज्ञानादि गुण उत्कर्षकी पराकाष्ठाको पहुंचे हुवे होते है वही ईश्वर है। .. पाश्चात्य दार्शनिक महावुद्धिशाली कांट पूर्णसत्त्ववाद' के दोष इस प्रकार वतलाते है- " आपके मतमें पूर्णसत्त्व सम्बन्धी धारणा उत्पन्न