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ईश्वर क्या है?
अगर समस्त जीव वस्तुतः एकान्त अभिन्न हों तो एक जीवके सुखमें सव, जीवोंको सुखी होना चाहिये । और इसी प्रकार एक जीवके दुःखमें समस्त जीवोंको उतना ही दुःख होना चाहिये । परन्तु न तो ऐसा होते हुवे देखते ही है और न अनुभव ही करते है । यदि ऐसा ही होता तो एक जीवके मोक्ष प्राप्त करने पर सब जीव मोक्षको प्राप्त हो जाएं। अथवा जब तक एक भी जीव बन्धनमें पड़ा हो तब तक, अन्य जीव भी मुक्त नहीं हो सकते । जैन कहते है कि ब्रह्माद्वैत मत स्वीकार कर लिया जाय तो बन्ध, मोक्ष और धर्माधर्म आदि केवल अर्थहीन शब्द रह जाएं। जीव स्वयं ही ब्रह्म हो तो फिर बन्ध, मोक्ष या धर्माधर्म आदि कुछ भी नहीं रहता।
वन्ध, मोक्ष तथा धर्माधर्मक विषयमें अद्वैतवादी कहना चाहते हैं कि, जीवोंमें परस्पर पारमार्थिक प्रभेद न सही, परन्तु व्यवहारतः एक जीव दूसरे जीवसे भिन्न है, अत एव एक जीवके मोक्ष जाने पर दूसरे जीव अपनी अपनी वन्धन दशाका उपभोग करते है। पारमार्थिक दृष्टिसे शुद्ध, मुक्त ब्रह्मके साथ जीवका अभेद होने पर भी वह व्यावहारिक दृष्टि से ब्रह्मसे भिन्न और अमुक्त है। शास्त्रोंमें वर्णित विधि नियम पालन करनेसे बन्धनग्रस्त जीव ब्रह्मके सानिध्यमें पहुंच सकता है, यही हमारे कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार अद्वैताचार्य व्यवहारापेक्षासे बंध और मोक्षकी तात्त्विकता प्रतिपादित करते है। यही नहीं, अपितु शास्त्रोक्त आचार, नियम, विधि आदिकी आवश्कता भी बतलाते है। इसके उत्तरमें जैनाचार्य कहते है कि, वेदान्ती व्यवहारदृष्टिसे जो बात कहते है उसीसे यह तो सहज ही सिद्ध हो जाता है कि वस्तुतः जीव असंख्य और