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भारतीय दर्शनोंमें जैन दर्शनका स्थान
भूतकालके दुर्भेद्य अंधकारमें असंख्य वस्तुएं लुप्त हो चुकी है, उन्हें प्रकाशमें लानेके लिये अन्वेषक अथवा इतिहास-प्रेमी उत्साह
और लानसे जो परिश्रम कर रहे है वह वस्तुत: प्रशंसनीय है, परन्तु जब वे समस्त घटनाओंको-सामाजिक प्रसंगोंको विक्रमपूर्वकी अथवा पश्चातकी किसी एक शताब्दामें रखनेका आग्रह कर बैठते है तो पथच्युत होजाते है । वैदिक क्रियाकांडका समय निश्चित करने में भी वे महानुभाव इसी प्रकार आभ्यन्तरिक वादविवादमें फंस गये और ठीक ठीक कालनिर्णय न कर सके । वैदिक कर्मकाण्ड और बहुदेववादके साथ साथ ही अव्यात्मवाद और तत्वविचारका प्रादुर्भाव हुवा प्रतीत होता है। परन्तु कितने ही विद्वानोंका मत है कि अव्यात्मवाद और तत्त्वविद्या उसके पादके है; तत्वविद्या और कर्मकाण्ड साथ साथ रह ही नहीं सकते, प्रथम कर्मकाण्ड होगा और फिर किसी समय-किसी शुभ मुहूर्तमें तत्वविचारका जन्म हुवा होगा । यह युक्तिवाद ठीक नहीं है । जैनधर्म
और बौद्धधर्ममें पुराना कौन है ? इस विषयमें बहुत अधिक वादविवाद हो चुका है। किसीने जैनधर्मको वौद्धधर्मकी शाखा माना, तो किसीने