________________
२८
“लेखोंमें, प्रशस्तिओं में किसी न किसी प्रकारसे मिलता है, तब प्रश्न होता कि, खारवेल जैसे समर्थ अनुयायी और प्रभावशाली नरपतिका निर्देश कहीं भी जैन साहित्य में क्यो नहीं ?
इस प्रश्नका उत्तर यथार्थ रूपमें पाना सरल नहीं, तो भी जैन परंपराके भिन्न भिन्न समयभावी तथा समकालीन गण-गच्छोंकी एवं फिरकोंकी प्रकृतिका अवलोकन हमें इस नतीजे पर पहुंचाता है कि, महाराज खारवेल किसी ऐसे जैन फिरकेके विशेष परिचयमें आये, जिसका सम्बन्ध तत्कालीन और उत्तरकालीन दिगंबर श्वेताम्बर जैन फिरकोके साथ उदासीनसा रहा । अगर महाराज खारवेलने कलिंगमें जैन परम्पराको प्रोत्साहन दिया और उनके पहेलेसे कलिंग में जैन परम्परा के अस्तित्वका प्रमाण मिलता है, और संभव भी है, तो मानना होगा कि, कलिंग में वर्तमान तत्कालीन जैन फिरका कोई खास था, जो उस समयकी अचेल - सचेल परंपरासे किसी अंगमें भिन्न था। भगवती–व्याख्याप्रज्ञप्तिमें पार्श्वपत्यिक अनेक साधु श्रावकों का वर्णन है, जो काल्पनिक नहीं । उन पार्श्वापत्यिकोमेंसे ऐसे अनेक थे जो अन्त तक भगवान् महावीरके शासनमें सम्मिलित न हुए, व एकमात्र भगवान् पार्श्वनाथको ही मुख्यतया मानते रहे जिल्लोंमें सराक जातिका जो अवशेष है और उसमें जो चिह्न अभी "मिलते है उनसे भी उक्त संकेतका समर्थन होता है । महाराज खारवेलके "खवाली गुफामें सर्पफणाकी आकृति है, जो भगवान् पार्श्वनाथका एक परिचायक चिह्न है। ऐसी बिखरी हुई असंकलित बातोंका विचार करते हुए कल्पना यही होती है कि, कलिंगमे पार्श्वपत्यिकोंको एक
। मानभूम आदि