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जिनवाणी
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है । जैनधर्मकी नीतिमें ही नहीं अपितु भारतकी लगभग सभी धर्मनीतियोंमें एक बात मानी गई है कि पुण्यवान, सुकर्मी अथवा धर्मसाधक व्यक्ति क्रियावान न भी हो । भारतीय धर्मनीतिमें अचंचल स्थिति या चिरगंभीर धैर्यकी अनेक स्थानोंमें प्रशंसा की गई है । और उसीको साधनाका मूल एवं लक्ष्य कहा है। इस दृष्टिसे देखते हुए धर्मकी अपेक्षा अधर्म ही विशेष धर्मपोषक है ऐसा कह सकते है ।
सच बात तो यह है कि, गति-स्थिति- कारणरूप धर्म-अधर्म की तात्त्विकताका स्वीकार यह जैन दर्शनको विशिष्टता है । इन शब्दोंके नैतिक और तात्त्विक अर्थो में संबंध स्थापित करनेका प्रयत्न सर्वथा व्यर्थ प्रतीत होता है ।