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भारतीय वाङ्मयमें-खास कर जैन वौद्ध ग्रन्थोंमें - पहिलेहीसे मौजूदथी। इस वाड्मयके अभ्यासी भी इस देशमें पहिलेहीसे रहे है। पर उस सामग्रीका ऐतिहासिक दृष्टिसे उपयोग करके एक सबल विधान करनेवाला आखिरको योरपमें ही पैदा हुआ। और आज हम खुद जैन साधु गृहस्थ पण्डित आदि सब याकोबीके नामका उपयोग करके पार्श्वनाथके ऐतिहासिकत्वका समर्थन करते है। यह वस्तु तत्त्वतः अनुचित नहीं, पर इसके पिछे जो हमारी मनोदशा है वह अवश्य चिन्तनीय है।
___ आज भी ऐतिहासिक ऐसे अनेक प्रश्न है, जिनकी गवेषणा करना हमारा ही कर्तव्य है। पर हमारी मनोदशा इतनी अधिक पराधीन हुई है कि, हम खुद कुछ कर नहीं पाते । भगवान् पार्श्वनाथके वर्तमान जीवनका जहां तक सम्बन्ध है वहां तक भी हमें ऐतिहासिक दृष्टिसे उस पर संशोधन करना होगा । व्यक्तित्वका इतिहास एक बात है और जीवन सम्बन्धी हकीकतोंका इतिहास दूसरी बात है। यदि भगवान् पाश्वनाथका व्यक्तित्व इतिहाससिद्ध है तो उनके साथ सम्बन्ध रखनेवाली सेंकडों बातों से हो सके इतनी अधिक वातोंका ऐतिहासिक संशोधन भी हमें करना होगा। उनका संघ कैसा था ? वह केवल नवनिर्मित था या पूर्व परम्पराके आधारसे विकसित हुआ था ? उनका विहारक्षेत्र तथा धर्मप्रचारक्षेत्र कितना था और कहां कहां था ? उनके समयका निर्ग्रन्थ वाङ्मय था तो कैसा और उसका प्रर्यवसान क्या हुआ ? कौन कौनसे विशिष्ट राजे, विद्वान् या गृहपति उनकी परम्परामें हुए - जिन्होंने पार्श्वनाथके शासनको प्रभावक बनानेमें योग दिया। खास